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जनविद्या
लौकिक प्रयोजन
भगवद्गुण-संस्तवन, धर्म एवं अभ्युदय से जिनका सीधा संबंध नहीं है और जो केवल for ज्ञान व व्यवहार तक ही सीमित रह गई हैं ऐसी प्रेरणायें व शिक्षायें प्रस्फुटित करना कवि को इष्ट रहा है जिसे हम यहां कवि का लौकिक प्रयोजन कह सकते हैं। सुदंसणचरिउ में यह पर्याप्त रूप से व्याप्त है । निदर्शनार्थ कुछ बानगी प्रस्तुत है
1. युवा सुदर्शन अपने मित्र कपिल के साथ जब बाजार से गुजरता है तो एक सुकुमारशरीर युवती को देखकर ( 41 ) मोहित हो जाता है और कपिल से उसके बारे में पूछता है । कपिल सगोत्र उसका नाम बता देता है (4.4), साथ ही सुदर्शन को शिक्षा देता है कि स्त्री का अभिप्राय दुर्लक्ष्य होता है, उसे समझकर ही अनुराग करना चाहिये (4.5) । एतदर्थं वह विटगुरु वात्स्यायन विरचित कामशास्त्र के अनुसार जाति, अंश, सत्व, देश, प्रकृति, भाव व इंगित आदि विशेषों से स्त्रियों के लक्षण समझाता है। नारी की प्रकृति, भाव, दृष्टियों प्रौर संकीर्ण अशुद्ध विचारधारा के साथ त्याज्य स्त्रियों के लक्षण स्पष्ट कर देता है तथा सौभाग्यशाली स्त्रियों का बोध कराकर स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षण चिह्नों का ज्ञान भी कराता है (4.5-14)।
यहां कामशास्त्रानुरूप स्त्री-विषयक विवेचन प्रस्तुत करना कवि को प्रभीष्ट है क्योंकि वह अपने चरितनायक को एतद्विषयक ज्ञान से परिपक्व बनाना चाहता है ताकि वह भागे आकस्मिक स्त्रीसंसर्ग के प्रसंग उपस्थित होने पर अपनी सुरक्षा कर सके । संभव है इसी ज्ञान के बल पर सुदर्शन कपिला, महारानी अभया और गरिएका देवदत्ता के दुरभिप्रायों को प्रतिशीघ्र समझ सका हो और प्रपने व्रताचरण या शील की रक्षा में ग्रडिंग व सफल रह पाया हो ।
2. सुदर्शन मौर मनोरमा की कामसंतप्त दशा का वर्णन करने के पीछे कवि का प्रयोजन इस लौकिक तथ्य को उजागर करना रहा है - स्नेह कभी एकाश्रित नहीं होता, यदि घटित भी हो जाय तो स्थिर नहीं होता जैसे छिद्रयुक्त करतल में पानी नहीं ठहरता (5.1) 1
3. छल से बुलाये गये सुदर्शन के साथ जब उसके मित्र की पत्नी कपिला कामपीड़ित हो रतिसुख की वांछा करती है तो सुदर्शन चतुराई से अपने प्रापको नपुंसक बता अपने शील को साफ-पाक बचा लेता है (7.4)। 'मित्रादिक की पत्नियाँ या परायी स्त्रियां मां-बहन आदि के समान पूज्य हैं और पुरुष उनके सामने यथार्थतः नपुंसक ही है ।' यहां इस तथ्य को उजागर करने का प्रयोजन यह है कि पुरुष को भी अपने शील की रक्षा करनी चाहिये ।
4. सुदर्शन पर कामासक्त प्रभया जब अपनी अनुचरी पंडिता को अपना दुरभिप्राय बताती है तो पंडिता पतिव्रता स्त्री के अनुरूप ही लोक में अनिन्द्य प्राचरण करने का उपदेश देती है ( 8.2-7) जो शील के महत्त्व को ख्यापन करने व अस्थिर चित्त को सुस्थिर करने के प्रयोजन से प्रतिशय प्रेरणादायक व महनीय है।
5. अपने व्रताचरण के पालन में दृढनिश्चयी सेठ सुदर्शन प्रष्टमी के दिन प्रारंभपरिग्रह का परित्याग कर शुद्धमन हो श्मशान की ओर जा रहा था तो अपशकुन हुए ( 8.15 ) । कवि के अनुसार ये अपशकुन भावी उपसर्ग के सूचक हैं। इस प्रकार निमित्त - नैमित्तिक संबंधों