SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या अपभ्रंश का सर्वप्रथम उल्लेख ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी में विरचित महर्षि पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। वास्तव में स्थूलरूप में अपभ्रंश के विकासकाल का विभाजन निम्न प्रकार से किया जा सकता है 1. आदि काल (प्रारम्भिक काल)-ई. पूर्व 300 से 600 ई. तक । भाष्यकार पंतजलि से लेकर प्राचार्य भामह तक । 2. पूर्व मध्यकाल (विकास काल)-600 ई. से 1200 ई. तक । गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयम्भू से लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र तक । 3. उत्तर मध्यकाल (सामान्य काल)-1200 ई से 1700 ई. तक । आचार्य हेमचन्द्र सूरि से कवि भगवतीदास तक । 4. आधुनिक काल (पुनर्जागरण काल)-अठारहवीं शताब्दी के उत्तराद्धं में रिचर्ड पिशेल से अब तक । उपर्युक्त विभाजन के अनुसार स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य के इतिहास में भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टि से छठी शताब्दी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। वास्तव में पांचवी शताब्दी के अनन्तर ही अपभ्रंश का साहित्य लिखा जाना प्रारम्भ हो गया था एवं छटी-सातवीं शताब्दी में तो अपभ्रंश में काव्य-रचना होने लग गयी थी। वल्लभी नरेश धरसेन द्वितीय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उनके पिता संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं में प्रबन्धकाव्य रचने में निपुण थे। इसके अलावा अपभ्रंश के प्राचीन कवियों में गोविन्द और चतुर्मुख के नाम मुख्यरूप से मिलते हैं । यद्यपि दुर्भाग्य से इन दोनों ही कवियों की रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं किन्तु अपभ्रंश के अन्य प्राचीन कवियों ने इनका उल्लेख अवश्य किया है। महाकवि स्वयंभू (सातवीं शती) के 'स्वयम्भूच्छन्द' में कवि गोविन्द द्वारा रचित कृष्णविषयक प्रबन्धकाव्य का एवं महाकवि धवल कृत हरिवंशपुराण में गोविन्द द्वारा ही अपभ्रंश भाषा में रचित सनत्कुमारचरित का ' उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार अपभ्रंश के अनेक प्रमुख कवियों ने यथा हरिषेण, श्रीचन्द, धवल, धनपाल, वीर, रइधू आदि ने कवि चतुर्मुख का सादर स्मरण किया है । लोक जीवन की ऐसी कोई विधा नहीं जिस पर अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखा गया हो । साधारण से साधारण घटनाओं तथा लोकोपयोगी विषयों पर अपभ्रंश साहित्य की रचना हुई है। छठी-सातवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का साहित्य विशेषकर लोकनाट्यों में मिलता है । पूर्व मध्यकाल अनेक काव्यरचनाओं का काल रहा है इसमें अनेक प्रबन्धकाव्य, पौराणिक महाकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, खण्डकाव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, गीतिकाव्य आदि सभी अपभ्रंश में रचे गये हैं। जहां संस्कृत में कथाएँ अधिकांशतः गद्य में लिखी जाती थीं वहां अपभ्रंश एवं प्राकृत में काव्य के रूप में कथाएं लिखने की प्रवृत्ति अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती है। लिखकर या मौखिक रूप में धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को समझाने के लिए दृष्टान्तरूप में कथा कहने की प्रवृत्ति श्रमण साधुनों में अत्यन्त व्यापक थी। अधिकांशतः अपभ्रंश में सिद्ध साहित्य आठवीं शताब्दी से मिलने लगता है। उत्तर मध्यकाल में अधिकांश अपभ्रंश साहित्य स्तुति-पूजा पर, गीतियों पर, चर्चरी, रास, फागु, चूनड़ी आदि लोक-धर्मी विधाओं में रचा गया है।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy