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________________ (iii) यह एक आश्चर्यजनक परन्तु वास्तविक तथ्य है कि उपलब्ध अधिकांश अपभ्रंश साहित्य जैन एवं जैनेतर विद्वानों द्वारा जैनपुराणों, जैनकथानों, जैन सिद्धान्तों, जैन लौकिक व धार्मिक विषयों पर लिखा गया है एवं वह देश के जैन मन्दिरों व जैन ग्रन्थ भण्डारों में अभी तक भी सुरक्षित भी है। अधिकांश जैन काव्य शान्ति भक्ति के प्रतीक हैं परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव जीवन के अन्य पहलुनों को अछूता छोड़ा गया है । जहाँ तक जैन अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का सम्बन्ध है, उन्हें दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है जनविद्या 1. पौराणिक शैली, यथा-स्वयंभू का पउमचरिउ, पुष्पदंत का महापुराण, वीर कवि का जम्बूस्वामीचरिउ, हरिभद्र का मिरगाहचरिउ पौराणिक शैली में हैं । 2. रोमांचक शैली - धनपाल धक्कड़ का भविसयत्तकहा, पुष्पदंत का णायकुमारचरिउ, नयनन्दी का सुदंसणचरिउ रोमांचक शैली के उदाहरण हैं । कुछ विद्वान् कहते हैं कि प्रपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों की रचना नहीं हुई है परन्तु यह एक भ्रम है । जैन ग्रन्थ भण्डारों की खोज से यह ज्ञात हो चुका है कि संस्कृत व प्राकृत की तरह अपभ्रंश में भक्ति रस पर अनेक स्तोत्र व स्तवनों की रचना हुई है । कवि धनपाल (वि. सं. 11वीं शताब्दी) ने 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' जिनदत्त सूरि ( 12वीं शताब्दी) ने 'चर्चरी' और 'नवकारफलकुलक', देवसूरि ( 12वीं शताब्दी) ने 'मुनि चन्द्रसूरि स्तुति', धर्मघोषसूरि ( 13वीं शताब्दी) ने 'महावीर कलश' का निर्माण अपभ्रंश में ही किया है । अस्तु, जैसा ऊपर वर्णन किया गया है, अपभ्रंश भाषा में जीवन से सम्बन्धित सभी विधाओं पर रचनाएँ की गयी हैं । इन्हीं में प्रेमाख्यानक कथानों पर आधारित काव्य भी हैं । यह प्रेम आध्यात्मिक प्रेम ही नहीं है जिससे सम्बन्धित भक्ति रस, रूपकाव्य प्रादि ही मिलते हों बल्कि सांसारिक प्रेम भी है जहाँ व्यावहारिक जीवन की सरसता से प्रोतप्रोत विलासिता की कहानी होती है जो अन्त में व्यक्ति की दृढ़ता से वीतरागता में परिणत हो जाती है । ऐसा ही एक काव्य वि. सं. 1100 के लगभग मुनि नयनन्दी द्वारा रचित 'सुदंसणचरिउ' है। जैन साहित्य में सेठ सुदर्शन की कथा उसकी सच्चरित्रता के कारण काफी प्रिय व प्रसिद्ध है । अन्य प्रेमाख्यानक काव्यों की तरह इस रचना के वातावरण व कथा में काफी रोमान्स है । प्रेमिकाओं के प्रेम व्यापारों का निर्द्वन्द्व भाव से चित्रण हुआ है । स्त्री के किस अनुपम सौन्दर्य का वर्णन बड़ी रोमांचकारी शैली में किया गया है । प्रकार प्रेमिकाएँ, वेश्याएँ अपने रूपप्रदर्शन, चित्रप्रदर्शन, पुतलीप्रदर्शन एवं वाक्चातुर्य के द्वारा सुदर्शन को प्राप्त करने के लिए कुटिलता के माध्यम से, छल-कपट के माध्यम से प्रयत्न करती हैं, उसके प्रेम में उसकी सुन्दरता के कारण व्याकुल होती हैं व उसके वियोग में भूरती हैं । परन्तु अन्त में सच्चरित्रवान सुदर्शन सभी प्रकार की कठिनाइयों एवं लालच पर विजय हासिल करता है एवं उन प्रेमिकानों से मुक्ति प्राप्त कर मुक्तिरूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने में सफल होता है । जिस प्रकार खजुराहो, हलेविड आदि देश के कई भागों में उपलब्ध कलाकृतियों में जहाँ प्राध्यात्मिक चित्रण होता है वहाँ जीवन से सम्बन्धित रूप-दर्शन अथवा वस्तु-दर्शन का चित्रण भी मिलता है उसी प्रकार कई प्रेमाख्यानों, काव्यों में यथा नेमिनाथ- राजुल - कथा,
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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