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जैन विद्या
जिनदत्तकथा, सुदर्शनकथा प्रादि में स्त्री के सौन्दर्य का वर्णन किया है परन्तु उसके चारों श्रोर एक ऐसा पवित्र वातावरण फैला हुआ है जिससे विलासिता को स्थान प्राप्त नहीं हो पाता । वहीं सौन्दर्य वर्णन में जलन नहीं, शीतलता है, वहाँ विलासिता ही नहीं, पावनता भी है जिसे देखकर, पढ़कर श्रद्धा उत्पन्न होती है। ऐसे प्रेमाख्यानों के अध्ययन से व्यक्ति मानव की मूल और प्रमुख मनोवृत्ति को सही रूप में समझ पाता है । कहा जाता है कि किसी भी विषय की सही जानकारी जीवन को सही मोड़ देती है, गलत नहीं । ऐसा ही प्रेमाख्यानककथा - काव्य, जैसा ऊपर बताया गया है, 'सुदंसरणचरिउ' है जिसके रचनाकार एक जैन मुनि नयनन्दी हैं । इस प्रेमाख्यानक काव्य में जहाँ श्रृंगार रस, कलुषित प्रेम रस की भरमार है, वहाँ उसका अन्त शुद्ध वैराग्य रस में होता है । यह राग पर विराग की विजय का एक अनूठा उदाहरण है जो भाज भी भोगासक्त विषयानुरागी व्यक्ति को सच्चा मार्ग बता सकता है ।
इस 'सुदंसणचरिउ' कथा-काव्य में यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार सुदर्शन का जीव ने एक पूर्व भव में ग्वाले के रूप में सब मंगलों में श्रेष्ठ पंचणमोकार में रत होकर इस मन्त्र के माहात्म्य से एवं सत्संग के प्रताप से सम्यक्त्व प्राप्त कर स्वर्ग का सुख भोगकर अन्त में शाश्वत शिवसुख प्राप्त करने में सफल हो गया । इसी प्रकार यदि कोई भी व्यक्ति शुद्ध भाव से एकचित्त होकर पंचपरमेष्ठी का ध्यान करे और आवश्यक पूजाविधान करे व संयम पाले तो वह क्यों नहीं अन्त में मुक्ति रूपी वधू के मन को प्राकर्षित करेगा ? यदि उस दुर्लभ मोक्ष स्थान को रहने भी दिया जाय तो भी वह इस संसार में लोगों का प्रेम-अनुराग प्राप्त कर सकता है, विकट से विकट रोगों से व राक्षस भूत-प्रेतादि के भय से व विष उपविष के प्रभाव मुक्त हो सकता है। ऐसा प्रभाव है इस श्रेष्ठ पंचणमोकार मन्त्र का ।
मुनि नयनन्दी ने अवन्ति देश की गौरवशाली धारा नगरी में राजा भोज के शासन काल में वि.सं. 1100 में इस सुदर्शन- केवली चरित्र 'सुदंसणचरिउ' की रचना की । इसके अलावा उनके द्वारा रचित कृतियों में 'सयलविहि-विहाण' काव्य भी है। मुनिजी ने स्वयं अपनी गुरु-परम्परा को विस्तार के साथ अपने ग्रन्थ 'सुदंसणचरिउ' की अन्तिम 12वीं संधि के नवें कड़वक में अंकित कर दिया है। 'सुदंसणचरिउ' का हिन्दी अनुवाद मय संस्कृत टिप्पणादि के डॉ. हीरालाल जैन के संपादकत्व में प्राकृत, जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली द्वारा 1970 ई. में प्रकाशित हो चुका है ।
इस अंक में अपभ्रंश भाषा के कई विद्वानों व विशेषज्ञों ने कवि मुनि नयनन्दी के व्यक्तित्व, कर्तृत्व व काव्यप्रतिभा पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। जैन विद्या संस्थान समिति एवं संपादक मंडल इन सभी विद्वानों का हार्दिक आभारी है। हम अपने ही सहयोगी डॉ. कमलचंदजी सोगाणी, प्रोफेसर दर्शन - शास्त्र विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के भी हार्दिक प्रभारी हैं जिन्होंने पूर्व की भांति इस अंक की तैयारी में भी हार्दिक सहयोग दिया है ।
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
सम्पादक