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________________ जैन विद्या -75 सुदंसणचरिउ 12 सन्धियों में विभक्त काव्य की दृष्टि से प्रत्यन्त मूल्यवान् रचना है। यद्यपि इसमें इतिवृत्त का प्रवाह अन्य जैन काव्यों की ही तरह है तथापि काव्यकोशल की दृष्टि से चरितकाव्यों का अनुपम उदाहरण है । इसमें पदे पदे कवि का पाण्डित्य एवं अलंकारप्रेम दर्शनीय है । अन्य जैनचरितकाव्यों की तरह इसमें भी नायक का जन्म, पराक्रम, पाणिग्रहण, विलास एवं पूर्वभवों का चित्रण हुआ है । एक विरहिणी का कामदेव के प्रति उलाहना वर्णित करते हुए कवि कहता है पण पुणु सा पभणइ जरिणयताव । रे रे मयरद्वय खलसहाव । छलु लहेवि तुहुं वि महु तवहि देहु । सपरिसहो होइ कि जुत्तु एहु ॥ 5.1.5-6 अर्थात् तापदग्ध विरहिणी बार-बार कहती है 'हे दुष्ट स्वभाववाले कामदेव, तुम मुझे छलकर संताप दे रहे हो । क्या सज्जन के लिए यह समीचीन है।' इस उदाहरण से सुदंसणचरिउ की भाषा, अलंकार सुषमा एवं प्रथंगांभीर्य की सुन्दर झलक मिलती है । 3. कहाको कवि, मुनि और पण्डित इन तीन विशेषणों से विशिष्ट श्रीचन्द की यह प्रपभ्रंश भाषा की रचना है । " दंसणकहरयणकरंडु और कहाकोसु की ग्रन्थ प्रशस्तियों के अनुसार श्रीचन्द की गुरु परम्परा इस प्रकार है - देशीगरण कुन्दकुन्दाम्नायी श्रीकीर्ति, श्रुतकीर्ति, सहस्रकीर्ति, वीरचन्द्र, श्रीचन्द । यद्यपि कहाकोसु की प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं है तथापि मुनि श्रीचन्द ने अपने अन्य ग्रन्थ दंसणकहरयणकरंडु की रचना वि. सं. 1123 (1066 ई.) में कर्ण राजा के राज्य में श्रीमालपुर में की थी । arty में 53 सन्धियां हैं जिनमें कुल 100 कथायें हैं। इनमें से अधिकतर का कथानक बृहत्कथाकोश के ही समान है । सन्धियां अनेक कडवकों में विभक्त हैं। इसकी 22 वीं सन्धि के 16 कडवकों में सुभग गोपाल एवं अग्रिमभव के सुदर्शन सेठ का विस्तृत विवेचन हुआ है । 4. कथाकोश इस ग्रन्थ के रचयिता प्रभाचन्द हैं। ये राजा जयसिंह देव के राज्य में धारानगरी के निवासी थे। जयसिंह 1018-55 ई. के मध्यवर्ती धारानरेश भोज के बाद शासनारूढ़ हुए । अतः उनका काल 11 वीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है । कुछ विद्वान् इन्हें प्रमेयकमलमार्तण्ड के रचयिता प्रभाचन्द्र से अभिन्न मानते हैं । 10 किन्तु भाषापरीक्षण से यह तथ्य समीचीन नहीं जान पड़ता है । कथाकोश की उपलब्ध प्राचीनतम हस्तप्रति वि. सं. 1368 (1311 ई.) में लिखित है । 11 इसी एकमात्र प्रति से मुद्रित प्रति का सम्पादन हुआ है । इस कथा कोश में मूलाराधना की गाथा 'अण्णाणी वि य................ " पत्तो य सामण्ण' में दृष्टान्त रूप में सूचित सुदर्शन मुनि की कथा दी गई है। इसका प्रारंभ 'अंगदेशे चम्पानगर्या राजा नृवाहनः होता है तथा 'सुकान्तपुत्रं निजपदे घृत्वा विमलवाहनमुनिपार्श्व तपो गृहीत्वा केवलमुत्पाद्य मोक्षं गतः' से समापन हो जाता है । 12
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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