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________________ जैनविद्या जन्म में श्रेष्ठीपुत्र सुदर्शन हुआ। उन्हीं सुदर्शन ने दंगम्बरी दीक्षा धारण करके अपार यातनाएँ सहकर घोर तपस्या द्वारा कैवल्य को प्राप्त किया और संसार की जन्म-जन्मान्तर परम्परा का नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया । 74 उपलब्ध जैन साहित्य में अन्तःकृत केवली मुनि सुदर्शन के चरित के कुछ संकेत सर्वप्रथम हमें प्राकृत भाषा में निबद्ध शिवार्य ( शिवकोटि) कृत मूलाराधना या भगवती आराधना में उपलब्ध होते हैं । वहां कहा गया है— अण्णाणी वि य गोवो प्राराधित्ता मदो णमोक्कारं । चम्पाए सेट्ठिकुले जादो पत्तो य सामण्णं ॥1758॥ अर्थात् सुभग नामक ग्वाला ने अज्ञानी होते हुए भी मरते समय णमोकार मन्त्र की आराधना की जिसके फलस्वरूप वह चम्पानगरी के श्रेष्ठीकुल में उत्पन्न होकर श्रामण्य या मुक्ति को प्राप्त हुआ । मूलाराधना में सुदर्शनचरित के प्रख्यान का संकेत होने पर भी चरित वर्णित नहीं हुआ है । कथाकोशों और काव्यों के रूप में आनुषंगिक या स्वतन्त्र रूप से उनके चरित्र को लेकर जो ग्रन्थ लिखे गये हैं उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. बृहत् कथाकोश बृहत्कथाकोश के रचयिता हरिषेणाचार्य ने ग्रन्थ- प्रशस्ति में अपना पर्याप्त परिचय दिया है अतः इनका परिचय अन्धकाराच्छन्न नहीं है । हरिषेण के प्रगुरु ( गुरु के गुरु) पुनाट संघ के प्राचार्य मोनी भट्टारक थे। हरिषेण ने अपने कथाकोश की रचना वर्द्धमानपुर में की थी । इसका रचनाकाल अन्तःप्रमाण के आधार पर शक सं. 833 (931 ई.) है 12 बाह्य प्रमाणों के प्रालोचन - प्रत्यालोचन से भी यही काल निश्चित होता है । बृहत्कथाकोश संस्कृत भाषा में निबद्ध पद्यबद्ध रचना है । भगवती आराधना के इष्टान्तों में संसूचित कुल 157 कथाओं का इसमें वर्णन किया गया है । इसका परिमाण 12500 अनुष्टुप् प्रमाण है । इसकी 60वीं कथा सुभग गोपाल की है जो 173 पद्यप्रमाण है । इसमें णमोकार मन्त्र के माहात्म्य का विस्तृत विवेचन किया गया है । कथा के अन्त में इसे जिननमस्कार समन्वित कहा गया है । 3 जैन कथाओं की विकास परम्परा में तो इस ग्रन्थ का अद्वितीय महत्त्व स्वीकृत है ही, साथ ही काव्यों के स्रोतों के रूप में इसकी महती प्रतिष्ठा है । श्राचारविषयक तत्त्वों का भी इसमें सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है । 2. सुदंसणचरिउ सुदंसणचरिउ के रचयिता नयनन्दी प्राचार्य माणिक्यनन्दि त्रैविद्यदेव के शिष्य हैं । उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का इस प्रकार विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है— कुन्दकुन्दान्वयी लक्षत्राचार्य पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि, रामानन्दि, त्रिलोकनन्दि, माणिक्यनन्दि, नयनन्दि । ग्रन्थकार के स्वयं के उल्लेख के अनुसार उन्होंने सुदंसणचरिउ की रचना. धारानगरी के एक जैन मन्दिर के विहार में बैठकर वि. सं. 1100 ( 1043 ई.) में की थी । उस समय धारा में त्रिभुवननारायण श्रीनिकेत नरेश भोजदेव का राज्य था 15
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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