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________________ 94. 24. कान्तस्यात उं स्यमोः 4/354 कान्तस्यात उं [ ( क ) + ( अन्तस्य ) + (श्रतः) + (उं) ] स्यमो : [ ( स ) + ( श्रामोः) ] [ ( क ) - ( अन्त) 6 / 1] प्रत: ( अत् ) 5 / 1 उं ( उं) 1 / 1 [ ( स ) – (आम् ) 6 / 2] (नपुंसकलिंग ) में (संस्कृत के ) ककारान्त शब्द के 'प्रकार' से परे 'सि' और मम् के स्थान पर 'उ' होता है । नपुंसकलिंग में संस्कृत के ककारान्त शब्द के अन्त्य प्र से परे सि (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय) और श्रम् (द्वितीय एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'उ' होता है । तुच्छक तुच्छ ( नपुं. ) - ( तुच्छध + सि) = (तुच्छभ + उं) = तुच्छउं (प्रथमा एकवचन ) 15 नेत्रक+नेत्त (नपुं. ) भग्नक + भग्गन ( नपुं. ) 25. स्यादौ दीर्घ - ह्रस्वौ देव (पु.) हरि (पु) 4/330 स्यादी [ ( स ) + ( प्रादी)] दीर्घ- ह्रस्वो [(स) – (प्रादि) 7/1] [ (दीर्घ) - ( ह्रस्व ) 1/2 ] साहु (पु.) मह (स्त्री) कमल (नपुं. ) (तुच्छन + श्रम् ) = (तुच्छत्र + उं) = तुच्छउं नेतउं, भग्गउं नेत, भग्गउं ( अपभ्रंश में) 'सि' आदि परे होने पर ( अन्त्य स्वर) दीर्घ श्रौर ह्रस्व ( हो जाते है ) । अपभ्रंश भाषा में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों में सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय), जस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय), प्रम् ( द्वितीया एकवचन का प्रत्यय), जस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) भादि परे होने पर शब्द के अन्त्य स्वर का ( ह्रस्व होने परं) दीर्घ श्रौर (दीर्घ होने पर ) ह्रस्व हो जाता है । ह्रस्व का दीर्घ देवहि. देवाहि हरिहि हरीहि जैनविद्या हम यहां सुविधा के लिए तृतीया बहुवचन का उदाहरण ले रहें है इसी प्रकार सभी विभक्तियों में समझ लेना चाहिये । साहु, साहूह महिं, महि कमलहिं, कमलाहि ( द्वितीया एकवचन ) कहा (स्त्री) लच्छी (स्त्री) गामणी (पु.) सयंभू (पु.) बहू (स्त्री) (प्रथमा एकवचन ) ( द्वितीया एकवचन ) दीर्घ का ह्रस्व काहि कहि लच्छीहि, छह गामणीहिं, गामणिहि भूहि, सह बहूहि, बहु
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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