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________________ जैन विद्या पाविहे (पाव) 5/1 पावकलंकु [ (पाव) - ( कलंक) 1/1] कामुयचित्ते [ (कामुय ) (चित्त) 7 / 1 ] झसंकु ( झसंक) 1 / 1। (7) प्राय 84 (प्राय) 7 / 1 जो (ज) 1 / 1 सवि प्रसगाह (प्रसगाह) 1 / 1 सुछंदु (सुछंद) 1 / 1 वि (प्र) = ही मोतियवामउ ( मोत्तियदाम) 1 / 1 'अ' स्वार्थिक एह (एम) 1 / 1 सवि । (8) + ग्रहवा (प्र) = अथवा जं (प्र) = जहाँ जिह (प्र) = जिस प्रकार जेण ( ज ) 3 / 1 स प्रे किर (प्र) = पादपूरक प्रवसमेव ( अ ) = प्रवश्य ही होएवउ ( होहो एवा विधिकृ. हो वा होएव) विधिकृ 1 / 2 तं ( प्र ) = वहां तिह (प्र) = उसी प्रकार तेरा (त) 3 / 1 स . जिं (भ) = ही बेहिएरण ( देहिन) 3 / 1 तिह ( प्र ) = वैसे एक्कंगेरण ( एक्कंग) 3 / 1 वि सहेवउ ( सह + एवा सहेवा सहेवउ ) विधिकृ 1 / 2 (9, 10) 57 इस लोक में श्मशान से गिद्ध अलग नहीं होता है । कमल में घुसा हुमा भौंरा ( उससे ) दूर नहीं होता है (1) । तुम्बर और नारद का गीत नहीं छूटता है । ज्ञानी समुदाय ( मनुष्यों) का विवेक नष्ट नहीं होता है ( 2 ) । दुष्ट स्वभाव दुर्जन से प्रोझल नहीं होता है । निर्धन के चित्त से चिन्ता समाप्त नहीं होती है ( 3 ) । महाधनवान् से लोभ नहीं जाता है । यमराज से मारने का भाव दूर नहीं होता है ( 4 )। यौवनवान् से अहंकार नहीं हटता है । प्रेमी में लगा हुआ मन विचलित नहीं होता है ( 5 ) । महान् हाथियों का समूह विध्य पर्वत से नीचे नहीं आता है । सिद्धों का समूह शाश्वत (जीवन) से रहित नहीं होता है ( 6 ) । पापी से पाप का कलंक छूटता नहीं है । कामुक चित्त से कामदेव हटता नहीं है ( 7 ) | ( इसी प्रकार ) ( रानी का ) जो कदाग्रह ( प्रनैतिक निश्चय ) ( है ) ( वह ) ( उसके ) हटेगा, ( ऐसा लगता है) । यह ही मौत्तिकदाम छन्द ( है ) ( 8 ) । मन से नहीं धत्ता - या ( ऐसा कहें कि ) जहां (घटनाएँ ) जिस प्रकार अवश्य हो जिस व्यक्ति के द्वारा जैसी उत्पन्न की जायेंगी, वहाँ (वे) उसी प्रकार उस ही व्यक्ति के द्वारा प्रकेले वंसी ही सही जायेगी । ( इसको टाला नहीं जा सकता है । (9, 10) सुलहउ पायालए णायणाहु सुलहउ गवजलहरे जलपवाहु सुलहउ कस्सीरए घुसिर्णापड सुलहउ दीवंतरे विविहभंडु सुलहउ मलयायले सुरहिवाउ सुलहउ पहुपेसरणे कए पसाउ सुलहउ रविकंतमणिहिं हयासु सुलहउ प्रागमे धम्मोवएसु सुलहउ मणुयराणे पिठ कल जिणसासरणे जं ण कया विपत्तु सुलहउ सुलहउ सुलहउ सुलइउ सुलहउ विरहबाहु 1 वज्जलाहु I कमलसंडु 1 कामाउरे वइरायरे माणससरे पाहाणे गयरगर ईसासे जरणे वरलक्खणे सुईणे हिरण्णखंड 1 उरिहाउ । 5 कसाउ 1 पयसमासु । विसे । सुलहउ सुलहउ सुलहउ 1 पर एक्कु जि वुल्लहु भइपवित् किह णासमि तं चारिवि 110
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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