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________________ जैनविद्या 2. धर्म को प्रकट करने की पात्रतावाले श्रेसठ शलाका-पुरुषों के जीवन-चरित्र जानने की इच्छा पैदा कर देता है (1.12) ।। 3. ऋषभदास द्वारा जैनेश्वरी दीक्षा लेने के समय जब सुदर्शन उन से कहता है कि मैं भी दीक्षा लूंगा तो वह उसे समझाता है-'तू अभी जिनभवन निर्माण करा तथा जिनाभिषेक, जिनपूजा व जिनस्तुति कर, अपरिमित पौर सुपवित्र मुनिदान दे तथा जिनवरों ने जो कुछ जिनशासन में बताया है, उपदेश दिया है उसके अनुसार कर' (6.20)। . ___4. धर्माभिव्यक्ति की पात्रता के लिए दुराचरण या दुर्व्यसनों का त्याग अत्यन्त मावश्यक है । कवि ने जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार खेलना, चोरी करना और परदारगमन इन सातों ही दुर्व्यसनों को युक्तिपूर्वक अहितकर बताया है तथा उनके दुष्परिणामों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं (2.10-11)। 5. व्रताचरण में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देने के लिए कवि ने मुनि समाधिगुप्त से गृहस्थधर्म का उपदेश दिलवाया है जिसमें मद्य-मांस-मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप श्रावक के आठ मूल-गुणों का, पांच अणुव्रतों, तीन गुणवतों तथा चार शिक्षाव्रतों का सुस्पष्ट प्ररूपण किया है (6.2-8) । उसके अनुसार रात्रिभोजन-त्याग के बिना व्रत शोभा नहीं देते। खलजन के प्रति किये गये उपकार क्या हित करेंगे ? जिस प्रकार पर्वतों में मंदर पर्वत श्रेष्ठ है उसी प्रकार व्रतों में रात्रिभोजन त्याग सारभूत है (6.9) । रात्रिभोजन से तप का महाफल भी नष्ट हो जाता है (6.10) । रात्रिभोजन के कुपरिणाम से मनुष्य पुण्यहीन हो जाता है, अहर्निश उद्यम करके अपने को संतापित करता है तो भी अणुमात्र सुख नहीं पाता (6.11)। __रात्रिभोजन के फल से ही मनुष्य लक्ष्मीविहीन, दरिद्री होकर भिक्षाटन करते व नौकरी-चाकरी करते हुए भटकता रहता है (6.12)। सुन्दरशरीर, धन-सक्ष्मी आदि का मिलना व विमलयश मादि की वृद्धि का होना रात्रिभोजन त्याग का ही फल है (6.13)। पता नहीं क्यों कवि रात्रिभोजन त्याग के सुफल (6-14) तथा रात्रिभोजन के दुष्परिणाम (6.15) स्त्रियों को अलग से बताना चाहता है जबकि उसके प्रस्तुतिकरण में कोई प्रतिरिक्त वैशिष्ट्य भी नहीं है। 6. इन्द्रियों के वशीभूत महापुरुषों या देवों की दुर्दशा (10.8) व इन्द्रिय लम्पटता के हानिकारक परिणामों (10.7) को प्रदर्शित कर इन्द्रियविजय की ही महत्ता (10.9) ख्यापित की है। नरजन्म में भी यदि इन्द्रियविजयी होकर धर्म न किया जावे तो घर पाती हई शाश्वत सुखरूपी लक्ष्मी को घर से बाहर निकाल देने जैसा है (10.10) । कवि यह भी मानता है कि सर्पादिक विषले प्राणी तो इसी एक जन्म में असह्य दुःख देते हैं किन्तु विषय तो करोड़ों जन्म-जन्मांतरों में दुःख उत्पन्न करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है (2.10) । 7. व्रतदिवस अष्टमी को प्रारंभ-परिग्रह से मुक्त सेठ सुदर्शन कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। वहां से पंडिता द्वारा जबरदस्ती अभया के शयानागार में लाया गया (8.22-25; 8.29) तब तथा मुनिदशा में व्यंतरी द्वारा उपसर्ग किये जाने पर (11.15-16) कवि ने अपने नायक को अडिग व अस्खलित बताया है। इस प्रकार व्रतपालन में दृढ़प्रतिज्ञ
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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