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________________ 41 जैन विद्या रहने की प्रेरणा दी है। कठोर मुनिधर्म का दिग्दर्शन करके उच्छृंखलता व प्रमाद को व्रताचरण में सर्वथा निषेध्य बताया है तथा महान् उपसर्गों के बीच सुदर्शन मुनि की स्थिरता (11.17) से व्रत की गरिमा को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध कर दिया है । ऐसे ही व्रतमाहात्म्य से विपत्ति के समय व उपसर्गकाल में व्यंतर श्रादि देव रक्षा भी करते हैं ( 9.18 ) । वह कहता है— 'अपने मन में राग और द्वेष का त्याग करके लेशमात्र भी व्रतों का पालन किया जावे तो देवों प्रौर मनुष्यों की पूजा प्राप्त करना तो प्राश्चर्य ही क्या निर्दोष और पूज्य मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है । उत्तम सम्यग्दर्शनरूपी प्राभूषण को धारण करनेवाले भव्यजनों द्वारा जिनेन्द्र का स्मरण करने पर समस्त पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर अन्धकार ( 8.43 ) । पात्रता पैदा करने के इस परमलौकिक प्रयोजन के निर्वाह में कवि पर्याप्त सफल साबित हुआ है । आपेक्षिक मर्यादाओं में प्रर्थप्रतिपत्ति करने पर यहां न स्खलन है और न ही संद्धांतिक विवाद | पारलौकिक प्रयोजन पुण्याचरण या पापाचरण के फलस्वरूप मरणोपरांत अर्थात् अगले जन्म में जीव स्वर्ग-नरक प्रादि प्राप्त करता है ऐसे प्रसंगों को उपस्थित करना ही कवि के लिए पारलौकिक प्रयोजन कहलाता है। सुदंसणचरिउ में इसका निर्वाह प्रत्यधिक उपयोगिता के प्राधार पर नहीं हुआ है । परलोक से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ प्रसंग अवश्य अवतरित हुए हैं । जैसे 1. जो कोई मनोहर जिनमन्दिर निर्माण कराते हैं वे अन्य जन्म में चिरकाल तक स्वर्ग में रमण करते हैं । ( 6.20 ) । यहां जिनमन्दिर निर्माण का पुण्यफल परलोक में स्वर्ग प्राप्ति प्रतिपादित हुआ है । 2. व्रतमहिमा को भी परलोक से जोड़ा गया है। जैसे- श्रावक व्रतों का पालन करके मनुष्य स्वर्ग जाता है और वहां हारों व मणियों से भूषित देवियों से रमण करता हुआ चिरकाल तक रहता है ( 6.8) । · 3. णमोकार मंत्र के फल से जिनवर होते हैं, चौदह रत्नों और नव-निधियों से समृद्ध चक्रवर्ती होते हैं, अपने प्रतिपक्षियों को जीतनेवाले महापराक्रमी मल्ल बलदेव श्रौरबासुदेव होते है, महान् गुणों और ऋद्धियों को धारण करनेवाले सोलह स्वर्गों में देव होते हैं तथा नौ अनुदिश विमानों में एवं पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले महान् जीव होते हैं (2.9) 1 4. सुभग ग्वाला भी अगले जन्म प्रर्थात् परलोक में णमोकार मंत्र के प्रभाव से afra कुल में पैदा होकर पापों का नाश करना चाहता है (2.14 ) । 5. वणिक् ऋषभदास मुनि बनकर देवलोक को गये ( 6.20 ) । 6. प्रभया रानी मरकर व्यंतरी हुई जिसने मुनि सुदर्शन पर उपसर्ग किया ।. मौकिक प्रयोजन लौकिक व्यवहार एवं धर्म-विषयक पात्रता प्रजित करने की प्रेरणा देने के प्रतिरिक्त कवि विशुद्ध धर्म को अपनाने के लिए कुछ ऐसी प्रेरणायें व शिक्षायें अपने पाठकों को देना
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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