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________________ जैन विद्या शीघ्र जानेवाले खाजा में दुर्जन मैत्री और 'अचार' की तीक्ष्णता में स्त्री के तीखे मन की समता पाई है (5.6.6, 10) । जल्दी में पीया हुआ गर्म दूध पेट में ऐसी जलन करता है जैसे दुष्कर्मजन्य पश्चात्ताप (5.6.14)। अलग-अलग प्रसंगों में नीतिज्ञता के कारण राजा को 'जैन-शासन' और लक्षणयुक्तता के कारण 'व्याकरण' की उपमा दी गई है (2.5) । राजा का पीछा करते हुए व्यंतर देव.को जीव, का, पीछा करते हुए कर्म की उपमा देना बड़ा सार्थक है (9.16.5) । सुदर्शन को परोपकार के समान 'शीतल' और कामोन्मादिनी अभया को संतप्त शिला कहना (3.11) परोपकार और कामोन्माद का गुणात्मक पहलू भी अभिव्यक्त करता है। अमूर्तउपमान गभित दो उत्तम उपमाएं हैं - जोवणु व पडिउ महियलि णिएइ, णं कुकइकव्वु पए पए खलेइ। 9.21.6 वृद्ध व्यक्ति कुकविकृत काव्य के समान पद पद पर स्खलित होता है। हिमकरणमिसेण गवर परिपंडुरु सउरिसजसु व धावए। 11-21.1 हिमकण-युक्त श्वेत बाण सत्पुरुष का फैलता यश सा दौड़ा। अमूर्त अथवा भावों को स्थूल अथवा मूर्तमान वस्तुओं से उपमित करने पर जहां कवि के काव्य-कौशल की परीक्षा होती है वहां भाव भी बोधगम्य हो जाते हैं । कवि नयनन्दी चिन्ताग्रस्त नींद को संकेत-स्थल से भटकी हुई स्त्री के समान मानते हैं (2.6) । बढ़े हुए क्रोध को घी से सिंचित आग के समान भयंकर ठहराते हैं (9.1) । वे एकाश्रित स्नेह का अस्तित्व अंजलि में अधिक न ठहर सकनेवाले जल से अधिक नहीं मानते (5.1.12) । उभयपक्षीय स्नेह कवि की दृष्टि में इतना उत्तम और 'भाकर्षक है जितना दोनों ओर से रगे हुए पिचुक के पंख (8.3)। अमूर्त उपमेय के लिए मूतं उपमानों के कुछ श्रेष्ठ उदाहरण इस प्रकार हैं - . जोग्यणु पुणु बिरिणइवेयतुल्लु । 9.21.2 यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य है । तडिविप्फुरण व रोसु मणे मित्ती पहाण रेहाइव । 9.18.16 सत्पुरुष के मन में रोष बिजली की चमक के समान क्षणस्थायी और मंत्री पत्थर की रेखा के समान चिरस्थायी होती है । तहे सरायमणु दिसिहि पधावइ, करिपयदलिउ तुच्छ जलु णावइ । 7.2.9 . उसका सराग मन हाथी के पांव से मदित जल के समान सभी दिशाओं में दौड़ता है । ..अमूर्त उपमेय के लिए अमूर्त उपमान का एक सुन्दर उदाहरण है-. ........ खणे रोमंचु होवि सुपसिजद, . . . . . विरह, वि समिणवायनर राज्जडः। 7.9.8 क्षण-क्षण मैं रोमांच और प्रस्वेद होने के कारण विरह भी सन्निपात ज्वर के समान है।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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