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________________ गुणों की सार्थकता मणुयत्तहो फलु धम्मविसेसणु, मित्तहो फलु हियमियउवएसणु । विहवहो फलु दुत्थियासासणु, तक्कहो फलु वरसक्कय भासण । सुहरहो फल भीसणरणमंडणु, तवचरणहो फल इंदियदंडण । सम्मत्तहो फलु कुगइविहंसणु, सुयणहो फलु परगुणसुपसंसणु । पंडियमइफलु पावणिवत्तणु, मोक्खहो फलु पुणरवि. प्रणिवत्तणु। जोहाफलु प्रसच्चअवगण्णणु, सुकइत्तहो फलु जिणगुणवण्णणु । पेम्महो फलु सम्भावणिहालणु, सुपहुत्तहो फलु प्राणापालणु। णाणहो फलु गुरुविणयपयासणु, लोयणफलु जिणवरपयवंसणु । पर्य-मनुष्यत्व की सार्थकता धर्म का विशेषज्ञ होने में है, मित्रता की सार्थकता हित-मित कथन करने में है। वैभव की सार्थकता निर्धनता का नाश करने में है, तर्क की सार्थकता सुन्दर सुसंस्कृत कथन करने में है। शौर्य को सार्थकता भीषण-रण में सफल होने में है, तपस्या की सार्थकता इन्द्रियों का दमन करने में है, सम्यक्त्व की सार्थकता कुगति का विध्वंस करने में है, सज्जनता की सार्थकता पर-गुण-प्रशंसा करने में है, बुद्धिमता की सार्थकता पाप की निवृत्ति करने में है, मोक्ष का उद्देश्य संसार का प्रभाव करना है । जीभ की सार्थकता . असत्य की निन्दा करने में है । सुकवित्व की सार्थकता जिनेन्द्र के गुण-वर्णन करने में है। प्रेम का उद्देश्य सबके प्रति सद्भाव रखना है, अच्छे प्रभुत्व की सार्थकता आगम का पालन करने में है । ज्ञान की सार्थकता गुरुजनों के प्रति विनय करने में है और नयनों की सार्थकता जिनेन्द्रदर्शन में है। सुबंसरणचरिउ 1.10
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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