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________________ सुदंसणचरिउ का काव्यात्मक वैभव -डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री भारतीय प्राख्यानों में 'सुदर्शन' का नाम अपरिचित नहीं है। प्राचीनकाल से लेकर प्रद्यप्रभृति विविध पुराणों एवं विभिन्न काव्यात्मक विधाओं में निबद्ध सुदर्शन का चरित्र उपलब्ध होता है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में ही नहीं, भारत की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में भी समय-समय पर सुदर्शन विषयक कथात्मक काव्य रचे जाते रहे हैं । इन कथात्मक काव्यों में प्रस्तुत. मुनि नयनंदी विरचित 'सुदंसणचरिउ' अपभ्रंश का एक विशिष्ट काव्य है। अपभ्रंश की कथाकाव्य-धारा को समुन्नत एवं समृद्ध करने में जिन मनिवार्य उपादानों की प्रावश्यकता हो सकती है वे सभी तत्त्व प्रस्तुत काव्य में भलीभांति समाहित हैं। स्वयं कवि के युग में यह काव्य विद्वानों के द्वारा अभिवन्दित हो चुका था। कवि का यह संकेत प्रात्मश्लाघा न होकर वास्तविकता है । डॉ. नथमल टांटिया ने इस काव्य से प्रभावित होकर लिखा है-नयनंदी का यह चरितकाव्य पालंकारिक काव्यशैली की परम्परा में है । जहां-तहां वर्णनों में समासों की शृंखलाएं एवं अलंकारों के जटिल प्रयोग पाठकों को बाण और सुबन्धु की याद दिलाते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपभ्रंश काव्य-धारा के कवियों में समासबहुम काव्यशैली का चमत्कार प्रकट करने में मुनि नयनंदी से बढ़ कर अन्य कवि नहीं है। इनकी यह भी विशेषता है कि समस्त पदावली का सर्वत्र प्रयोग होने पर भी भाषा क्लिष्ट नहीं है, बल्कि उसमें लालित्य ही लक्षित होता है। भाषा के चलते हुए प्रयोग भी लोकोक्तियों तथा सूक्तियों के रूप में भी पाये जाते हैं। भाषा में अनुरणनात्मक तथा मनुकरणमूलक शब्दों के भाव-भरित प्रयोगों से विविध बिम्बों को व्यंजित करने में कवि की अभिव्यंजना-शक्ति का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है । भाषागत विविध प्रयोगों की दृष्टि से भी. इस काव्य में कई प्रकार
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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