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जनविद्या
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शुभाशुभ कर्म, मंत्र-तंत्र, व्रत-अनुष्ठान, शकुन-अपशकुन आदि का निर्धान्त ज्ञान सम्भव है। स्त्री-प्रकृति वर्णन में कविश्री ने विशेष अभिरुचि प्रदर्शित की है और उसमें अपनी कल्पना एवं सौन्दर्यदर्शन की अन्तष्टि का परिचय दिया है। यह रचना कविश्री के पाण्डित्य और कलाप्रावीण्य का श्रेष्ठ संकेतक है । रचना का उद्देश्य जनसाधारण के हृदय तक पहुँचकर उनको सदाचार की दृष्टि से उँचा उठाना रहा है। प्रस्तु, रोचक धर्मकथा के माध्यम से कविश्री ने लक्ष्यसिद्धि प्राप्त की है । धार्मिक-व्यंजना के साथ प्रेमकथा कहने की यह सांकेतिक शैली सूफी कवियों के लिए विशेष अनुकरणीय रही है। इस महाकाव्य के कथानक के समानान्तर ही प्रेममार्गी कवियों ने कथाएँ गढ़ कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया है ।15
वस्तुतः काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का समाहार 'सुदंसणचरिउ' में साफल्यपूर्वक हुमा है । अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में कविश्री नयनंदि का यह चरितात्मक महाकाव्य अपना महनीय स्थान रखता है। इस महाकाव्य की प्रतिच्छाया संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के परवर्ती काव्यकारों के साथ-साथ हिन्दी कवियों की रचनामों में स्पष्टरूप से भाषित है।
1. (प्र) आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध, डॉ. हरीश, पृ. 9।
(ब) हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास डॉ. गणपति चन्द्रगुप्त, पृ. 86 ।
(स) साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्र मुनि शास्त्री, पृष्ठ 68 । 2. भारतीय साहित्य कोश, सम्पा. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 600 । 3. सुदंसणचरिउ, सम्पा डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 14 । 4. भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया, जैन विद्या, महाकवि
धनपाल विशेषांक, अप्रेल 1986, श्रीमहावीरजी पृ. 29-30।। 5. अपभ्रंश वाङ्मय में भगवान् पार्श्वनाथ, डॉ. प्रादित्य प्रचण्डिया 'दोति', तुलसीप्रज्ञा,
खंड 12, अंक 2, सितम्बर 87, लाडनू (राज.) पृ. 43 । 6. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, पृ. 138। 7. अपभ्रंश कवियों की 'प्रात्मलघुता' का मध्ययुगीन हिन्दी काव्यधारा पर प्रभाव,
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', महावीरजयन्ती स्मारिका, वर्ष 1986, जयपुर, पृ. 43 । 8. केशव कौमुदी, प्रथमभाग, टीकाकार लाला भगवानदीन, सं. 1986, पृ. 72। 9. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंशकोछड़, पृ. 167 । 10. 'विद्यापति पदावली, संकलनकर्ता-रामवृक्ष वेनीपुरी, पद संख्या 20, 22, पृष्ठ 30, 32 । 11. (क) सुदंसणचरिउ, रामसिंह तोमर, विश्वभारती पत्रिका, खंड 4, अंक 4, अक्टूबर
दिसम्बर 1945, पृ. 263 । (ख) अपभ्रंश भाषा के दो महाकाव्य और कविवर नयनंदि, परमानंद शास्त्री, अनेकांत,
___वर्ष 10, किरण 10 । 12. जंबूसामिचरिउ, 4.14, सम्पा. डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 75-77 । 13. अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, अंबादत्त पंत, पृ. 268 । 14. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंश कोछड़, पृ. 174 । 15. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग 1, श्री नेमिचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य, पृ. 49 ।