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________________ जनविद्या काव्य है जिसमें कतिपय घटनाएँ तथा कथाएं धार्मिक मान्यतामों को सिद्ध करने के लिए कथानक से संश्लिष्ट की गई हैं। इसमें प्राश्चर्य तत्त्व की बहुलता है। तंत्र-मंत्र में विश्वास, मुनिवाणी में श्रद्धान, स्वप्नफल और शकुनों में विश्वास भी दृष्टिगत हैं। सीमित उद्देश्य को लेकर चलने के कारण ऐसे काव्यों में कवि प्रायः जीवन के विविध पहलुओं को नहीं छू सकता पौर भावनाओं का अन्तर्द्वन्द्व भी नहीं दिखला सकता । इनमें घटनाओं का प्राधान्य रहता है और विचारतत्त्व क्षीण । अपभ्रंश प्रबन्धों के इतिवृत्त के बन्ध को अपभ्रंश कवयितामों की धार्मिक दृष्टि से देखना श्रेयस्कर होगा । अतएव कविश्री नयनंदि ने कथा के मध्य में उपदेश भी दे डाले हैं । इस रचना में रानी अभया का सेठपुत्र सुदर्शन के प्रति अपने पति की उपस्थिति में प्राकर्षित होना एक सामाजिक विसंगति है । इससे सामन्तवाद पर वणिकवाद की विजय दर्शित है । इसके मूल में धार्मिक पुण्य काम रहा है। कथा के प्रवाह में काव्यरूढ़ियों-मंगलाचरण, विनयप्रदर्शन, काव्यप्रयोजन, लोकप्रचलित विश्वास आदि का प्रयोग परिलक्षित है। इस प्रकार कथानक बहुत ही रोचक, सरस और मनोरंजक है तथा कविश्री नयनंदि ने काव्योचित गुणों का समावेश कर इसको पठनीय बना दिया है । - चरित्रचित्रण -सुदर्शन इस चरितात्मक महाकाव्य का धीर प्रशान्त नायक है । इसी के नाम पर महाकाव्य का नामकरण भी किया गया है। उसका चरित्र केन्द्रीय है मौर अन्य पात्र उसके सहायक हैं । वह अनेक गुणों से मंडित है, दृढव्रती, प्राचारनिष्ठ सुन्दर मानव है । भावुकता उसका स्वभाव है। वह प्रेमी है जिसके वशीभूत हो वह मनोरमा की पोर प्राकृष्ट होता है परन्तु अपने ऊपर आसक्त रानी अभया और कपिला के प्रति वह सर्वथा उदासीन है । यही गतिशीलता और स्थिरता उसके चरित्र को उत्थित करती है। सुदर्शन का चरित्र राग से वैराग्य की ओर मुड़ता है। वह मंत्र और व्रत की प्रभावना दोहराता है । सुदर्शन का रूप संसार की समस्त सुन्दर वस्तुओं के समन्वय से निर्मित है। इसके वर्णन, दर्शन या भावना मात्र से किसी के हृदय में गुदगुदी उत्पन्न हो सकती है। सुदर्शन के चरित्र में वैयक्तिक विशेषता है । वस्तुतः सुदर्शन का चरित शक्ति, शील एवं सौन्दर्य से मण्डित है। अन्य पात्रों में मनोरमा, कपिला, अभया, पंडिता एवं धाड़ीवाहन के चरित्र प्रमुख हैं। इन प्रमुख पात्रों के अतिरिक्त कतिपय पात्र इस प्रकार हैं जिनका विशेष कथ्य काव्यग्रंथ में नहीं है, जैसे-राजा श्रेणिक, महादेवी चेलना, गौतम गणधर, सेठ ऋषभदास, महदासी तथा कपिल । इनके चरित्र का अंशरूप में विकास दृष्टिगोचर होता है । प्राश्चर्यतत्त्व की प्रधानता होने के कारण व्यन्तर प्रादि देव सहजरूप से प्रकट हो पात्रों की सहायता करते हैं। पात्रों के चरित्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण इस काव्य की विशेषता है । कवि ने अपनी सूक्ष्म अन्तई ष्टि द्वारा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के बीच घटित होनेवाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का सुन्दर विश्लेषण किया हैं। - वस्तुवर्गन-अपभ्रंश प्रबन्धकाव्योचित समवसरण, ग्राम, नगर, देश, मरण्य, उपवन, उद्यान, सागराभिमुखी गंगा का सहज वर्णन, ऋतु, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि मादि का स्वाभाविक चित्रण सुदंसणचरिउ में परिलक्षित है। मानवीय क्रियाकलापों का बचार्य वर्णन इस काव्यकृति में उपलब्ध है यथा-उद्यानक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, मिथुनों की सुरत
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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