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________________ जनविद्या क्रीड़ा, नारी की कामचेष्टाएँ, साधुनों के मंगलदर्शन, दीक्षा तथा उपदेश प्रादि । इसके अतिरिक्त व्यन्तर देव की युद्धलीला, राजा और निशाचर का सैन्यसंघर्ष, व्यंतरी द्वारा घोरतम उपसर्ग मादि का भी वर्णन कविकाव्य में द्रष्टव्य है । मगधदेश के वर्णन में कविश्री नयनंदि की दृष्टि नदियों, इक्षुवनों, उपवनों, राजहंसों और उत्कृष्ट राजामों प्रादि विस्तृत विषयों तक पहुंच गई है । यथा जहिं गदर पमोहर मणहरिउ बीसहि मंथरगमणिउ । " गाहही सायरहो सलोणहो जतिउ गं वररमणिउ ॥ 1.2 अर्थात्- (मगधदेश में) जहां जल से पूर्ण मनोहर नदियां मंथरगति से लवण समुद्र की पोर बहती हुई ऐसी शोभायमान होती हैं जैसे मानो मनोहारिणी युवती रमणियां मन्दगति से अपने सलोने पति के पास जा रही हों। कवि प्रागे वर्णन करते हुए कहता है उववणाई सुरमणकयहरिसई, भदसाल गंदणवणसरिसइं। कमलकोसे भमरहिं मह पिज्जा, महुपराहं ग्रह एउ जि छन्वा । जहि सुसरासण सोहियविगह, कयसमरालीकेलिपरिग्गह । रायहंस बरकमलुक्कंठिय, विलसई बहुविहपत्तपरिट्ठिय ॥ 1.3. अर्थात् वहां के उपवन रमण करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करते हुए उस भद्राशालयुक्त नन्दनवन का अनुकरण करते थे जो देवों के मन को आनंददायी है। कमलों के कोशों पर बैठकर भ्रमर मधु पीते थे । मधुकरों को यही शोभा देता है । जहां सुन्दर सरोवरों में अपने शोभायमान शरीरों सहित, हंसिनी से क्रीड़ा करते हुए श्रेष्ठ कमलों के लिए उत्कंठित और माना प्रकार के पत्रों पर स्थित राजहंस उसी प्रकार विलास कर रहे थे जिस प्रकार कि उत्तम धनुष से सुसज्जित शरीर, समरपंक्ति की क्रीड़ा का संकल्प किये हुए श्रेष्ठ राज्यश्री के लिए उत्कंठित व नाना भांति के सुभट पात्रों सहित उत्तम राजा शोभायमान होते हैं। - इस प्रकार कवि का वर्ण्य विषय तथा शैली परम्परायुक्त है। कविकाव्य में नारीसौन्दर्य, भौगोलिक प्रदेशवर्णन, प्राकृतिक दृश्य, विरह-वर्णन, स्त्रियों के गुण, रूप तथा स्वभाव वर्णन के साथ-साथ वैराग्यजनक उपदेशों की भरमार है। इन सबका वर्णन श्लिष्ट और अलंकृत शैली में हुआ है । वस्तुतः दृश्ययोजना, वस्तु-व्यापार-वर्णन और परिस्थिति-निर्माण की योजना कविश्री ने यथास्थान की है। वर्णनों में नामों की बहुलता नहीं है अपितु वस्तु के गुणों का विश्लेषण किया गया है। प्रकृतिवर्णन-'सुदंसणचरिउ' में महाकवि नयनंदि ने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में प्रायः प्रसिद्ध उपमानों का प्रयोग किया है। प्रकृति प्रायः संयोग-वियोग के सन्दर्भ में वर्णित है परन्तु अधिकता उद्दीपन रूप में ही दर्शित है। . नंदी, वसन्तऋतु, सूर्यास्त, प्रभात प्रादि के सुन्दर चित्र कवि-काव्य में परिलक्षित हैं । गंगा नदी के वर्णन में कवि ने नदी की तुलना एक नारी से की है। नदी के प्रफुल्ल कमल नारी के विकसित मुख के समान हैं।' भ्रमरसमूह
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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