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________________ जनविद्या 5 अलकपाश के समान, मत्स्य दीर्घनयनों के समान, मोती दंतावली के समान और प्रतिबिम्बितशशि दर्पण के समान प्रतीत होता है । कूलवृक्षों की शाखारूप बाहुओं से नाचती हुई इतस्ततः प्रक्षालन से त्रिभंगियों को प्रकट करती हुई, सुन्दर चक्रवाकरूप स्तनवाली, गम्भीर भावर्तरूप नाभिवाली, फेन-समूहरूप शुभ्रहारवाली, तरंगरूप त्रिवली से शोभित, नीलकमलरूप नीलांचल धारण करती हुई, जलविक्षोभरूप रशनादाम से युक्त नदी वेश्या के समान लीला से पोर मंथर गति से सागर की ओर जा रही है । यथा सुंबरपयलक्खणसंगय विमल पसण्ण सहावह। णावा तिय सहइ सइत्तिय गइ प्रहवा सुकइहे कह। 2.11 पप्फुल्लकमलवत्ते हसंति, अलिवलयलियमलयई कहति । दोहरझसणयहि मण हरंति, सिप्पिउडोउहि विहि जणंति । मोतियवंतावलि परिसयंति, परिबिबिउ ससिबप्पणु रिणयंति । तरविरविसाह बाहहि गति, पक्खलणतिभंगिउ पायत्ति । बरचक्कवाय पणहर एवंति, गंभीरणीरभमणाहिति । फेरणोहतारहारुन्वहंति, उम्मीविसेसतिवलिउ सहति । सयवलगीलंचलसोह दिति, जलखलहलरसणावामु लिति । मंथरगइ लीलए संचरंति, बेसा इव सायर अणुसरंति ॥ 2.12 बसंत-वर्णन में कविश्री नयनंदि ने ऋतु के अनुकूल मधुर और सरल पदों की योजना की है । कवयिता का कहना है कि इस अवसर पर जिनके पति दूर हैं ऐसी महिलाओं के मन को सन्तप्त करनेवाला सुहावना वसंत-मास पा गया । यथा दूरयरपियाहं महिलहं मणसंतावणु। . तहिं अवसरे पत्त मासु वसंतु सुहावण ॥ 7.4 कविश्री नयनंदि बसंत-वर्णन करते हुए मागे कहते हैं-बसंतराज का अग्रगामी मंदसुगंध मलयाद्रि का पवन हृदय में क्षोभ उत्पन्न करता हुमा प्रसारित होने लगा और मानिनी महिलाओं के मान का मर्दन करने लगा । जहां-जहां मलयानिल चलता वहां-वहां मदनानल उद्दीप्त होने लगता । जहां सुन्दर अतिमुक्तलता का पुष्प विकसित हो वहां भ्रमर क्यों न रस का लोभी हो उठे ? जो मंदार-पुष्प से अत्यन्त कुपित होता है वह अपने को कुटज पुष्प पर कैसे समर्पित कर सकता है ? भ्रमर भूलकर, श्यामल, कोमल, सरस और सुनिर्मल कदली को छोड़कर निष्फल केतकी के स्पर्श का सेवन करता है । ठीक है-जो जिसे रुचे वही उसे भला है । महकता हुमा तथा विरहणियों के मन का दमन करता हुमा प्रफुल्लित दमनक किसे इष्ट नहीं है ? जिनालयों में सुन्दर नृत्य प्रारम्भ हो गये और तरुण विकासयुक्त/शृंगासत्मक चर्चरी नृत्य करने लगे। कहीं उत्तम हिंडोला गाया जाने लगा जो कामीजनों के मन को डांवाडोल करता है । अभिसारिकायें संकेत को पाने लगी । जिनके पति बाहर गये हैं वे अपने कपोलों को पीटने लगीं। पथिक अपनी प्रियाओं के विरह में डोलने लगे मानो मधुमास ने उनको भुलावे में डाल दिया हो । ऐसे समय में पुष्पों और फलों के समूह से युक्त करंड लेकर वनपाल तत्क्षण राजा की सभा में आ पहुंचा (7.5)।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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