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________________ जनविद्या जाहे गुप्फूगढिमए विहप्फड, उवहसियउ विसेसमइविष्फई। जाहे लडहजंघहि मोहामिउ, रंभउ णीसारउ होएवि थिउ । जाहे णियविबु अलहंते, परिसेसियउ अंगु रहकते। जाहे चारुतिवलिहे ण पहुच्चहि, जलउम्मिउ सयसक्कर वच्चहि । जाहे पाहिगंभीरिमजित्तर, गंगावत्तु ण थाइ भमंतउ । जाहे मझु किस अवलोएवि हरि, रणं तवचरणचित्तु गउ गिरिवरि। जाहे सुरोमावलिए परज्जिय माइणि बिले पइसइ णं लज्जिय। प्रयसई कलिय रोमावलिय जइ णवि विहि विरयंतउ। तो मणहरेण गुरुयणहरेण मझ प्रवसु भन्जंत: ॥ 4.2 अर्थात् मनोरमा लक्ष्मी के समान थी उसकी क्या उपमा दी जाय ? उसकी गति से मानो पराजित भौर लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसनियों) सहित मानस-सरोवर को को चले गये । उसके अरुण तथा अतिकोमल चरणों को देखकर ही तो लालकमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं। उसी के पैरों के नखरूपी मणियों से विषण्ण चित्र और नीरस/हतोत्साह होकर नक्षत्र आकाश में जा ठहरे हैं। उसके गुल्फों की गूढ़ता से विशेष विशालमति वृहस्पति भी उपहासित हुआ है । उसको सुन्दर जंघात्रों से तिरस्कृत होकर कदली वृक्ष निस्सार होकर रह गया । उसके नितम्ब विम्ब को न पाकर ही तो रतिकान्त कामदेव ने अपने अंग को समाप्त कर डाला। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुंच कर जल की तरंगे अपने सौ टुकड़े करके चली जाती हैं। उसकी नाभि की गम्भीरता से पराजित होकर गंगा का भ्रमण करता हुमा प्रावर्त स्थिर नहीं हो पाता। उसके मध्य अर्थात् कटिभाग को इतना कृश देखकर सिंह मानो तपस्या करने का भाव चित्त में लेकर पर्वत की गुफा में चला गया। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित होकर मानो लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश करती है । उसकी लोहमयी काली रोमावलि की यदि ब्रह्मा रचना न करता तो उसके मनोहर विशाल स्तनों के भार से उसका मध्यभाग (कटि) अवश्य ही भग्न हो जाता। ___ मनोरमा की कोमल बाहुओं को देखकर मृणालतन्तु भी उनके गुणों का उमाह करते थे । उसके सुललित पाणिपल्ववों की कंकेलीपत्र भी अभिलाषा करते थे। उसके शब्द को सुनकर अभिभूत हुई कोकिला ने मानो कृष्णत्व धारण किया है । उसके कण्ठ की तीन रेखामों से निजित होकर ही मानो शंख लज्जा से समुद्र में जा डूबे हैं। उसके अधर की लालिमा पराजित हो गई। इसीसे तो उन्होंने कठिनता धारण कर ली है । उसके दांतों की कांति द्वारा जीते जाने के कारण निर्मल मुक्ताफल सीपों के भीतर जा बैठे हैं । उसके श्वास की सुगंध को न पाने से ही पवन अति विह्वल हुमा भागता फिरता है। उसके निर्मल मुखचन्द्र के समीप चन्द्रमा ऐसा प्रतिभासित होता है जैसे वह गिरकर फूटा हुआ खप्पर हो । उसके नासिका वंश से उपहासित होकर सुमा अपनी नासिका को टेढ़ी बनाकर प्रकट करता है। उसके नयनों का अवलोकन करके हरिणियों ने विस्मित होकर गहन वन में अपनी प्रीति लगाई है। उसकी भौंहों की गोलाई से पराजित होकर ही तो इन्द्रधनुष निर्गुण (प्रत्यंचाहीन) हो गया है । उसके भाल से जीता जाकर कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा खेदवश माज भी क्षीण हुभा दिखाई देता है । उसके केशों द्वारा जीते जाकर भौंरों के झुण्ड रुनझुन करते हुए कहीं भी सुख नहीं पाते (4.3) ।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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