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________________ नविद्या 25 सुदर्शन ने महाराज की प्रभयादेवी को उसी प्रकार कलुषित किया है जिस प्रकार सरोवर में घुस कर गजपति पद्मिनी का विध्वंस कर डालता है। तिणकट्ठोहि सिहि तीरिणिसयसहसहि सायर। .. रण लहइ तिती जिह तिह जीउ वि भोयतिसायर ॥ 11.9.9 जिस प्रकार अग्नि, तृण व काष्ठ से तथा सागर लाखों नदियों से तृप्ति नहीं पाता उसी प्रकार तृषातुर जीव भी भोगों से संतुष्ट नहीं हो पाता। अर्थान्तरन्यास जब कभी सामान्य बात कहकर उसके समर्थन में विशेष बात अथवा विशेष बात कहकर उसके समर्थन में सामान्य बात कही जाय तब प्रर्थान्तरन्यास अलंकार होता है - प्रमिलताण वि दीसइ णेहो दूरे वि संठियाणं पि। जइ वि हु रवि गयरणयले इह तहवि हु लइइ सुहु णलिणी॥ 8.4.13-14 परस्पर न मिलनेवाले तथा एक दूसरे से दूर स्थित व्यक्तियों में भी स्नेह देखा जाता हैं । यद्यपि सूर्य प्राकाशतल में है तो भी इस पृथ्वी पर नलिनी को उसका सुख मिलता है। सामल कोमल सरस सुणिम्मल, कयली वज्जेवि केयइ णिफल । सेवइ फरसु वि छप्पउ, भुल्लउ, जं जसु रुच्चइ तं तसु भल्लउ । 7.5.6-7 भौंरा भूलकर श्यामल, कोमल, सरस और सुनिर्मल कदली को छोड़कर निष्फल केतकी के स्पर्श का सेवन करता है । ठीक है जो जिसे रुचे, वही उसे भला है । उक्त दोनों उद्धरणों में क्रमशः स्नेह-सम्बन्धी सामान्य बात का समर्थन 'सूर्य और . कमलिनी' के उदाहरण से किया गया है । विशेष बात भौंरे के स्वभाव को लक्षित करके उससे रुचि और चाहना सम्बन्धी सामान्य प्रवृत्ति का समर्थन लिया गया है। अत: दोनों ही स्थितियों में अर्थान्तरन्यास अलंकार हुआ। भ्रांतिमान कहिं वि क विमरणकरचरण किय पयडए । भमरगण मिलवि तहि गलिणमण णिवडए । 7.18 ' भम कहीं कोई अपने लाल हाथ और पैर प्रकट करने लगी जिन्हें कमल समझकर भ्रमरगण उन पर एकत्र होने लगे। - उक्त पद्यांश में नायिकाओं के लाल हाथ और पैरों को कमल समझने की भ्रान्ति भौंरों को हुई है अतः यहां भ्रान्तिमान अलंकार है ।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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