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________________ 52 जैनविद्या रुद्रदत्त दीर्घ काल के लिए नरकरूपी समुद्र में पड़ा (4) । जो मूर्ख उत्साहपूर्वक जूमा खेलता है, वह (जूमा में लीन होने के कारण) रोष से जकड़ा हुआ माता, बहिन, पत्नी और पुत्र को कष्ट देता है (5,6) । जूमा खेलते हुए नल ने और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने (भी) कष्ट पाया (7) । मांस खाने के कारण अहंकार बढता है, उस अहंकार के कारण (वह) मद्य की इच्छा करता है, जूमा भी खेलता है (तथा) बहुत सी बुराइयों में गमन (करने लगता है) (8,9) । (उसका) अपयश फैलता है । उस कारण से उससे निवृत्ति की जानी चाहिए (10)। मांस खाते हुए वण राक्षस मारा गया (और) (उसने) नरक पाया (11)। मदिरा के कारण नशे में चूर हुमा (मनुष्य) झगड़ा करके प्रिय मित्र को (भी) कष्ट पहुंचाता है (12) । (कभी) (वह) राजमार्ग पर गिर जाता है (तथा) (कभी) (वह) उन्मत्त शरीरवाला (होकर) हाथ को ऊंचा करके नाचता है (13)। मदिरा (पीने) के कारण घमंडी होते हुए सभी यादव विनाश को प्राप्त हुए (14)। वेश्या सुन्दर वेश दिखलाती है (और) पिशाचिनी की तरह खून (के कणों) का घर्षण करती (है) (15)। उसके (घर में) (काम-क्रीड़ा के लिए) जो रहता है, वह अस्तव्यस्त (व्यक्ति) (मानो) जूठन खाता है (16) । वेश्या में मस्त हुमा व्यापारी चारुदत्त यहां धन-रहित हो गया (17) । (धन-रहित होने के कारण) (चारुदत्त को) (अपने यहां से) दूर हटाती हुई (वेश्या) (उससे) विमुख (हुई) (और) (उसके द्वारा) (उसके) बाल काट दिए गए (मौर) (उसका) वेश दयनीय बना दिया गया (15) । जो वीर होते हैं, चाहे वह शबरों का (समूह) ही हो, वे वन में रहनेवाले मृगों के समूहों को, जो वन में घास चरते है (पौर) (केवल) खड़खड़ आवाज सुनकर निश्चित डर जाते हैं, नहीं मारते हैं (19,20,21)। (उनको) मूर्ख (व्यक्ति) क्यों मारता है ? उनके द्वारा क्या किया गया है (21) ? शिकार का प्रेमी चक्रवती ब्रह्मदत्त नरक में गया (22) । चंचल और निर्लज्ज चोर गुरु, मां और बाप को (भी) प्रादरणीय नहीं मानता है (23) । वह उनको तथा दूसरों को भी निज भुजाओं की बदौलत (तथा) जालसाजी से ठगता है (24) । (वह) उपेक्षित मूढ (व्यक्ति) संकटरूपी कूए में (गिरता है) (मौर) (वह) निद्रा (और) भूख को नहीं पाता है (25) । यह (वह) पद्धडिया छन्द (है), (जिसकी) विद्युल्लेखा नाम से ख्याति है (26)। घत्ता-(चोर) पकड़ा जाता है, बांधकर ले जाया जाता है, चौराहे और मुख्य मार्ग पर (उसके) (चोरी के कार्य को) फैलाकर (वह) दंडित किया जाता है । तथा शहर के बाहरी भाग में काटा जाता है और मारा जाता है । परवसुरयहो अंगारयहो सूलिहिं भरणं जायं मरणं । 1 इय णिएवि जणो तोवि मूढमणो चोरी करइ उ परिहह । जो परजुवइ इह महिलसइ सो गीससइ । गायइ हसइ । 3 सहिऊण जए णिवडइ गरए होऊ अबुहा रामण पमुहा । 12 परयाररया चिरु खयहो गया सत्त वि बसणा एए कसण । 13 . .. (2.11)
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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