SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या रचना अनेक भावपूर्ण वर्णनों से भरपूर है । निम्नलिखित वर्णन विशिष्ट हैं—देश, नगर, नृप, यात्रा, समवसरण, गुण-वर्णन, सरिता, क्रीड़ा, स्वप्न-फल, बाल-क्रीड़ा, स्त्री-लक्षण, नारी-प्रकृति, नारी की भाव-दृष्टियां, इंगित-वर्णन, शुभ-अशुभ लक्षण, कामदशा-वर्णन, विवाहोत्सव, जेवनार (जीमन), सूर्यास्त, रात्रि, सूर्योदय, विरह-वेदना, बसन्त, उद्यान-उपवन, उद्यान-क्रीड़ा, सरोवरशोभा, जल-क्रीड़ा, अपशकुन, श्मशान, मनोरमा-विलाप, युद्ध-लीला, सैन्य-संचरण, संग्राम, हस्ति-युद्ध, मल्लयुद्ध, रथ-युद्ध, निशाचर और राजा का विक्रिया-युद्ध, जिन-मन्दिर-वर्णन, मुनिवर्णन, व्याघ्र-भील का वर्णन, विमान का अटकना, उपसर्ग-वर्गन प्रभृति । कथा-वर्णन में कवि ने प्रबन्ध-रचना के सभी सूत्रों का यथास्थान समावेश किया है किन्तु वर्णनों की प्रचुरता में न तो कथानक में गतिशीलता परिलक्षित होती है और न संवादों की यथेष्ट संयोजना परन्तु अर्थोद्भवन में, प्रालंकारिक वर्णन में तथा बिम्ब-विधान में कवि की वृत्ति विशेष रूप से रमी है । जितने अधिक छन्दों का प्रयोग इस रचना में हुआ है वैसा विविध वर्गों का सुन्दर संयोजन बहुत कम रचनाओं में उपलब्ध होता है। इस काव्य की यह भी विशेषता है कि कवि ने अनेक स्थलों पर छन्द का नाम सूचित किया है । लगभग एक सौ छन्दों से अधिक का प्रयोग इस काव्य में किया गया है। उनमें मात्रिक तथा वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का समावेश है । कई छन्द नये हैं जिनके नाम और लक्षण तक अन्यत्र नहीं मिलते। इस प्रकार यह काव्य कई बातों में अनुपम है। प्रस्तुत कथाकाव्य में कई मार्मिक प्रसंगों की संयोजना दृष्टिगोचर होती है । एक मोर नारी के हाव-भावों, इंगितों तथा लक्षणों का वर्णन है तो दूसरी और जगत् का स्वरूप रूपक के माध्यम से चित्रित किया गया है । यदि सेठ अपने पुत्र को लोक-व्यवहार की शिक्षा देता है तो नारी-हठ की दुनिवारता एवं कामिनियों की काम-लीलाओं का भी सहज स्वाभाविक चित्रण किया गया है । प्रकृति-वर्णन में मुख्यतः मालम्बन रूप का ही चित्रण उपलब्ध होता है । सर्वत्र वर्णनों में अलंकरण की प्रधानता है । कहीं-कहीं नवीन उपमाओं तथा उपमानों का प्रयोग किया गया है । इक्षु-दण्डों को धूर्तों का कुल कहना, उपवनों को भद्रशाल-युक्त नन्दनवन बताना, विलासशील राजहंसों को उत्तम धनुष से सज्जित शरीर कहना, पृथ्वी की महिला बतलाना एवं नगर का समुद्र के समान वर्णन करने में चमत्कार अवश्य है । नई-नई कल्पनाओं से उत्प्रेक्षा करने में कवि सिद्धहस्त जान पड़ता है । जैसे यह कहना कि गाय के हाथ-पैर चलना ऐसे बन्द हो गये थे जैसे किसी दुष्ट राजा के ग्राम के उजड़ जाने से वहां पर प्रजा का आवागमन तथा करदान की क्रिया बन्द हो जाती है । न प्रवाल की अरुणिमा से शोभित तरुणी के अधर में, न भौरों को नृत्य करानेवाले आम में, न मधुर इक्षु-दंड में, न अमृत में, न कस्तूरी में, न चन्दन में और न चन्द्र में वह रस प्राप्त होता है जो सुकवि रचित अलंकारयुक्त काव्य में उपलब्ध होता है । शोभन-कण्ठ का मध्य भाग ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो सुरेन्द्र के हाथी की दो सूडे हों । प्रशोकपत्र को जीतनेवाले हाथ वज्र को चूर-चूर करने में समर्थ थे । गोलाकार वक्षस्थल ऐसा प्रतीत होता था मानो वह लक्ष्मी का केलि-गृह हो । मध्य में स्थित स्वमुष्टि-ग्राह्य *- कटिभाग ऐसा था मानो वज्रदन्ड का मध्य भाग ही हो। नाभि का सुगम्भीर छिद्र ऐसा था
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy