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________________ 16 जनविद्या मानो अनंगरूपी सर्प का गृह हो । उसका मितम्ब भाग ऐसा शोभायमान था मानो कामराज की पीठ हो । उसके चरणों के नखरूपी मणियों से विषण्ण चित्त तथा हतोत्साह होकर नक्षत्र माकाश में जाकर स्थित हो गये हों। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा की समता न कर सकने के कारण जल-तरंगें शत-शत खण्डों में प्रवाहित होकर चली जाती हैं । उसकी नाभि की गम्भीरता से पराजित हो कर गंगा का प्रावतं भ्रमण करता ही रह जाता है, स्थिर नहीं हो पाता । उसके मध्य कटिभाग की कृशता को देख कर मानो सिंह तपस्या करने के लिए पर्वत की गुफा में चला गया है। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित हो कर मानो लज्जित होती हुई नागिनी बिल में प्रवेश कर रही है । उसकी नासिका से उपहसित हो कर शुक अपनी नासा की वक्रता प्रकट कर रहा है। उसकी भौंहों की गोलाई से पराजित होकर इन्द्रधनुष निर्गुण (प्रत्यंचाहीन) हो गया है। कवि बिम्ब-रचना में अत्यन्त कुशल है । शब्द-चातुरी तथा कल्पना के मनोरमरूप में ऐसे बिम्ब अनुस्यूत हैं जो सम्पूर्ण शब्दचित्र को सजीव मूर्तरूप में प्रस्तुत करते हैं । गंगा नदी के वर्णन में कवि ने कई बिम्ब एक साथ संमूर्त कर दिये हैं-मुस्कान के साथ प्रेमालाप करती हुई सखियों से कोई तरुणी वेश्या शृंगार में मग्न हो, नृत्य-कला में दक्ष मन्थर गति से अभिसारण करती हुई प्रेमी के पास जैसे संचरण कर रही हो । कवि के शब्दों में - पप्फुल्लकमलवतें हसंति, अलिवलयलियलयई कहति । - दोहरझसरणयहिं मणुहरंति, सिप्पिउडोउहि विहि जणंति । मोतियवंतावलि परिसयंति, पडिबिंबिउ ससिबप्पण णियंति । तरविडविसाह बाहहि गति, पक्खलणतिभंगिउ पायउंति । बरचक्कवाय थणहर एवंति, गंभीरणीरभमणाहिति । फेणोहतारहारुग्वहंति, उम्मीविसेसतिवलिउ सहति । सयवलणीलंचलसोह विति, जलखलहलरसणावामु लिति । मंवरगइ लीलए संचरंति, वेसा इव सायर अणुसरंति । 2.12 सम्पूर्ण कथाकाव्य समस्त पदावली, संस्कृत भाषा की भांति श्लेषभरित शब्द-व्यंजना से युक्त तथा कोमल-कान्त पदावली से संयोजित है । समासों की ऐसी लम्बी लड़ी तथा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व देशी शब्दों की ऐसी सुन्दर संयोजना को देख कर लगता है कि कवि भाषा का कोई जादूगर था । प्रतएव यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि क्या वस्तु-वर्णन, क्या अलंकार-रस-छन्द-विधान, क्या भाषा भाव-योजना और क्या शिल्प-संरचना सभी दृष्टियों से उक्त रचना अपभ्रंश के कथाकाव्यों में अपने ढंग की निराली तथा महत्त्वपूर्ण रचना है । 1: पढमसीसु तहो जायउ जगे विक्खायउ मुणि णयणंदि अणिदिउ । चरिउ सुदसंणणाहहो तेण प्रवाहहो विरइउ बुहअहिणंदिउ ॥ -घत्ता, 12.9 2. सुदंसणचरिउ 12.8 पूर्ण कडवक ।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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