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________________ जनविद्या ..33 ____सुदर्शन सेठ की भावी पत्नी मनोरमा के सौन्दर्य-वर्णन के क्रम में कवि नयनन्दी ने 'त्रोटनक' छन्द का प्रयोग किया है। सोलह मात्रावाले इस छन्द के प्रत्येक चरण के अन्त में क्रमशः लघु-गुरु रहते हैं । उद्दीपक सौन्दर्य पर प्रांखें फिसल-फिसल जाती हैं । यहां देखने के भाव में प्रारोह-अवरोह का क्रम ध्यातव्य है । छन्दःशास्त्रियों की यथाप्रथित परम्परा के अनुसार लक्षण-उदाहरण एक साथ प्रस्तुत करते हुए कवि ने लिखा है कि तार तिलोत्तम इंदपिया, कि मायबहू इह एवि थिया । कि देववरंगण किव विही, कि कित्ति प्रमी सोहग्गरिकही। 4.4.1-2 सिक्खावय चारि प्रणत्यमियं, जो जपंइ जीवहियं समियं । जो कम्ममहीरहमोहणउ, छंबो इह बुच्चइ तोरणउ ॥ 4.4.7-10 वध के लिए सुदर्शन सेठ को श्मशान ले जाते समय उसकी पत्नी मनोरमा के विलाप के लिए कवि नयनन्दी ने प्रसंगानुसार, लक्षणोदाहरणमूलक 'रासाकुलक' छन्द का प्रयोग किया। है। इसमें इक्कीस मात्राएं होती हैं और चरणान्त में नगण (तीन लघु) रहते हैं। विलाप या शोक की अभिव्यक्ति की मार्मिकता के लिए संस्कृत के कवि प्रायः 'वियोगिनी' छन्द का प्रयोग करते हैं । 'रासाकुलक' में रास की प्राकुलता का भाव निहित है । संगम के पूर्वानुभूत सुख का स्मरण करती हुई मनोरमा करुण स्वर में कहती है सुमिरमि चारकवोलहि पत्तावलिलिहण, ईसि ईसि यणपेल्लण वरकुंतलगहणु । तो वि फुट्ट महारउ हियाउ वज्जमड, बुत छंदु सुपसिख इय रासाउलउ । 8.41.17-20 संस्कृत के विद्वान् कवि रावण ने 'शिवताण्डव स्तोत्र' में 'पंचचामर' वार्णिक छन्द का प्रयोग किया है तो अपभ्रंश के रससिद्ध कवि नयनन्दी ने विमलवाहन मुनि के वर्णन में लक्षणो. दाहरणमूलक 'पंचचामर' छन्द की योजना की है क्योंकि इस छन्द में वर्ण्य माश्रय के वर्चस्वी व्यक्तित्व का द्योतन होता है । इस छन्द में सोलह वर्ण होते हैं अर्थात् प्रारम्भ में जगण (लघु, गुरु, लघु), फिर रगण (गुरु, लघु, गुरु), पुनः लगण, रगण और जगण तथा अन्त में गुरु रहता है । यथा महाकसाय गोकसाय भीमसत्ततोरणो । अहिंसमग्गु पीस गग्गु कम्मबंधसारणो ॥ कुतित्पपंगु मुक्कसंगु तोसियाणरामरो । लगुत्तिसोलअक्सरेहिं छंदु पंचचामरो ॥ 10.3.18-21 कठिन वाणिक वृत्तों में अन्यतम 'दण्डक' छन्द की प्रायः प्रयोगविरलता देखी जाती है। किन्तु, अपभ्रंश के कवि नयनन्दी ने 'चण्डपाल-गण्डक' छन्द का प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि छन्दःशास्त्र उनका वशंवद था। बत्तीस वर्णों (प्रत्येक चरण में) के इस छन्द में क्रमशः नगण (तीन लघु), सगण (लघु, लघु, गुरु), पाठ बार यगण (लघु, गुरु, गुरु) और
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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