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________________ जैनविद्या अन्त में लघु-गुरु रहते है । इस लम्बे छन्द से हृदय में निहित जटिलता का संकेत होता है । स्वैरिणी रानी प्रभया ने सुदर्शन सेठ से अपना काम प्रस्ताव इसी छन्द में किया है 34 सुहय जइ इच्छसे संखकुंतेंडुणीहा रहा राभहीरंगगंगात रंगावलीपंडरं । पढममितिचारपंचछत्तट्ट प्रणष्ण- माणिक्क भूमिहि भाभा सियासेसविग्गंतरं ॥ विविकुसुमोहक जक्कसंमिस्सकत्थूरिकप्पूरकस्सोरयामोयधावंतइंदिविरं । चलियंतियपायमंजीरभंकारसद्देण उम्मत्तणच्चतमोरेहि उन्भासियं मंदिरं ।। 8.26 राक्षसों के साथ राजा धात्रीवाहन के भयंकर युद्ध का वर्णन कवि ने 'तोलक' छन्द में किया है । परुषायुक्त इस वार्णिक वृत्त में युद्धोचित उत्साह का प्रवाह निहित है, इसलिए युद्ध की विकट स्थिति के चित्रण के लिए यह सातिशय उपयुक्त है। इस छन्द में क्रमश: रगण ( गुरु, लघु, गुरु), जगरण (लघु, गुरु, लघु), रगरण, जगण और रगण की योजना रहती है। यथा रक्खसेण पत्थरालु मुक्कु सेलु जक्लणे । वाइवाहणेण चंडु वज्जदंड तक्खणे ॥ रक्खसे मुक्कु हंतु चंदु विष्फुरंतो । धाइवाहणेण राहु तप्यहा हरतो ॥ 9.15.4 कहना न होगा कि मैंने इस निबन्ध में छन्दः शास्त्र के पारगामी कवि नययन्दी की छान्दस विशिष्टता का दिग्दर्शन मात्र उपस्थापित किया है । छन्दोयोजना की दृष्टि से प्रतीव रमणीय इस प्रपभ्रंश - काव्य के छन्दः शास्त्रीय अध्ययन के लिए स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध प्रपेक्षित है । कवि के शब्दों में यह सचमुच ही, अपूर्व काव्य है । 1. सुदंसणचरिउ, सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक - प्राकृत जैन, शास्त्र और महिसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार 1970 । 2 सम्प्रति, पाटलिपुत्र (पटना) में सुदर्शन मुनि का यह स्थान गुलजार बाग रेलवे स्टेशन से उत्तर में प्रवस्थित है जो 'कमलदह' के नाम से प्रसिद्ध है - ० ।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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