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________________ जनविद्या .. अपनी अनाकुलवृत्ति बनाने के लिए यह कितना सटीक सिद्धान्त है अतः क्यों न वस्तुव्यवस्था को प्रमुख कर सूक्ष्म तत्त्वावधारण से जगत् एवं तद्भूत जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों/ पदार्थों को समझा जाय । इस समझ की भूमि पर ही सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होता है, इसी समझ से ज्ञान सम्यक्त्व के आलोक में चकासने लगता है और राग-द्वेष आदि विकल्पों से परे रहकर सम्यक्चारित्र के परम आनन्द से आत्मा को आह्लादित कर देता है। प्राकुलतागभित सर्व समस्याओं को दूर करने का समाधान भवितव्यता के मर्म को समझने से मिल जाता है। वस्तुतः भवितव्यता का ही सही अर्थों में प्रवभासन होने पर मुक्तियात्रा प्रारम्भ होती है और उसके ही दृढ़-विश्वास-मिश्रित स्वपुरुषार्थ से परिपूर्ण होती है। परिणाम में जीव अनुपम अतीन्द्रिय और अनाकुल प्रानन्द का नाथ बन जाता है, पूर्ण मुक्त हो जाता है, जैसे-ग्वाला, सुदर्शन बनकर अनंत सुखी अर्थात् केवली परमात्मा बन गया। कवि ने स्वयं ही सुदंसणचरिउ को केवलि-चरित्र कहा है (12.10)। इसमें कोई विप्रतिपत्ति भी नहीं है । कवि ने अपने ग्रन्थ में सुदर्शन को उपसर्ग केवसी बताकर उनके द्वारा उपदेश भी दिलवाया है (12.5) । इसके अलावा ग्रंथ के प्रारंभ में वह सुदर्शन को पांचवां अन्तःकृत केवली भी बताता है (1.2)। वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में दश अन्तःकृत केवली हुए। यथा-1. नमि, 2. मतंग, 3. सौमिल, 4. रामपुत्र, 5. सुदर्शन, 6. यमलीक, 7. बलीक, 8. किष्कवलि, 9. पालम्ब और 10. अष्टपुत्र ।' ऋषभादि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में भी अन्य दश-दश अन्तःकृत केवली हुए। अन्तःकृत की परिभाषा है-'संसारस्य अन्तःकृतो यस्तेऽन्तःकृतः । यहां प्रश्न हैसंसार का अन्त तो सभी केवली करते हैं फिर वे सभी अन्तःकृत केवली क्यों नहीं हुए। यह भी निश्चित है कि भगवान् महावीर के तीर्थ में दश ही नहीं और भी कई केवली हुए हैं । अनिबद्ध केवलियों का उल्लेख भी प्राता ही है । दारुण उपसर्गों को जीतकर केवलज्ञान प्रजित करनेवाले उपसर्ग केवली होते हैं, ऐसे केवलियों का अवस्थान भी हो सकता है और वे उपदेश भी देते हैं, यह संभव है । किन्तु अन्तःकृत केवली तो उपसर्ग . को जीतकर केवलज्ञान अजित करते हैं तथा अन्तर्मुहूर्त में ही सर्व कर्मों का अन्त कर सिद्ध बन जाते हैं, यह विद्वज्जनों एवं प्रागमाभ्यासी वृद्धजनों से प्राप्त श्रुति है । यदि यह सही है तो मुनि नयनंदी के अनुसार बताये गये सुदर्शन केवली अन्तःकृत केवली नहीं हो सकते भले ही कवि ने नाम सादृश्य से उन्हें पांचवा अन्तःकृत केवली बता दिया हो । . आराधना-कथा-कोश', जो भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त द्वारा रचित ग्रन्थ है, में पंचणमोकार मंत्र-प्रभावना-कथा के रूप में सुदर्शन की कथा है जो सुदंसणचरिउ से समानता रखती है किन्तु उन्होंने सुदर्शन को अन्तःकृत केवली नहीं बताया है। विद्वज्जन इस विषय पर विचार करें। 1. षट्खंडागम धवलाटीका, 1/1-1-2/104, जै.सं.सं. सोलापुर प्रकाशन । 2. वही-1/1-1-2/104 3. वही-1/1-1-2/104 4. वी. नि. सं. 2494 में नागौर (राज.) से प्रकाशित।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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