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________________ जनविद्या पत्ता-एम (म)=इस प्रकार वियप्पिवि (वियप्प+इवि) संकृ जाम (म)=जब पिउ थिन भूक 1/1 अनि प्रविमोलचितु (अविनोलचित्त) 1/1 वि सुहबसणु [(सुह) विदसण 1/1] प्रभयादेवि (अभयादेवि) 1/1 विलक्ख (विलक्ख) 1/1 वि हय (ह) भूक 1/1 ता (ता) 1/1 सवि णियमणे [ (णिय) वि-(मण) 7/1] "चितइ (चित) व 3/1 सक पुणु पुणु (अ)=बार-बार । पाताल में सर्पो का स्वामी सुप्राप्य (है); काम से पीड़ित (व्यक्ति) में विरह का संताप स्वाभाविक (है) (1)। नये बादल में जल का प्रवाह सरल (है); हीरे की खान में हीरे की प्राप्ति आसान है (2) । कश्मीर में केसरपिंड सुलभ (है); मानसरोवर में कमलों का समूह सुलभ (है) (3) । द्वीपों के अन्दर नाना प्रकार की वाणिज्य वस्तुएं सुप्राप्य (हैं); पत्थर में सोने का अंश सुलभ (है) (4)। मलय पर्वत से सुगन्ध-युक्त वायु का (चलना) स्वाभाविक (है); व्यापक प्राकाश में तारों का समूह स्वाभाविक (है) (5)। स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार प्रासान (है); ईर्ष्या-युक्त व्यक्ति में कषाय स्वाभाविक (है) (6) । सूर्यकान्त मणियों द्वारा अग्नि आसानी से प्राप्त की जा सकती है। उत्तम व्याकरण-शास्त्र में पदों में समास आसान (है) (7) । मागम में मूल्यों के उपदेश सुलभ (हैं); सुकविजन में बुद्धि की श्रेष्ठता सुलभ (है) (8) । मनुष्य अवस्था में प्रिय पत्नी सुलभ (है); किन्तु जिनशासन में एक ही अतिपवित्र (चारित्र) दुर्लभ (है); जिसको (पहिले) (मैंने) कभी भी प्राप्त नहीं किया। उस चरित्ररूपी धन को (मैं) कैसे बर्बाद कर दूं (9,10) ? पत्ता-इस प्रकार विचार करके जब (सुदर्शन) (जिसका) दर्शन मनोहर (है) शान्तचित्तवाला हुमा (तो) प्रभयादेवी लज्जित हुई (पौर) वह निज मन में बार-बार विचार करने लगी। 36. विलक्ष=विलक्खलज्जित (माप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश)। . ... संकेत सूची - अव्यय इसका अर्थ= लगाकर लिखा गया है। - अकर्मक क्रिया अनियमित कर्मवाच्य विम] - क्रिया विशेषण अव्यय [इसका अर्थ लगाकर लिखा गया है । - प्रेरणार्थक क्रिया भविष्यत्काल भाववाच्य
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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