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आरम्भिक
इस पत्रिका के द्वारा अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट रचनाकारों पर प्रस्तुत की जानेवाली विशेषांकों की श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। इस कड़ी का सम्बन्ध है 'सुदंसणचरिउ' और 'सयल विहि-विहाण कव्व' के रचनाकार महाकवि नयनन्दी से।
अपभ्रंश भाषा पर अब तक जितना लिखा जा चुका है उससे इस भाषा के स्वरूप और रचनाशैली आदि की विशेषताओं पर पर्याप्त प्रकाश पड़ चुका है। काव्य के छन्दों का तुकान्त होना और रचना का संधियों तथा कड़वकों में विभक्त होना ये दो ऐसी विशेषताएँ हैं जो अपभ्रंश काव्यों में ही मिलती हैं।
___मुनि नयनन्दी प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में थे। यह त्रैलोक्यनन्दी के प्रशिष्य और माणिक्यनन्दी के प्रथम शिष्य थे । ये राजा भोज के राज्यकाल में हुए थे। काव्यशास्त्र में निष्णात, प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के उच्चकोटि के विद्वान् और छन्दःशास्त्र के परिज्ञानी मुनि नयनन्दी ने धारा नगरी के एक जैन मन्दिर के महाविहार में बैठकर अपना 'सुदंसणचरिउ' वि. सं. 1100 में रचा । इन्होंने अपनी रचनामों में लगभग 85 छन्दों का प्रयोग किया है।
'सुदंसणचरिउ' अपभ्रंश भाषा का एक खण्डकाव्य है, इसकी कथा रोचक और आकर्षक है। काव्य-कला की दृष्टि से यह उच्चकोटि का एक सरस और निर्दोष काव्य है। सुदर्शन के निष्कलंक चरित्र की गरिमा से युक्त इस काव्य में 12 संधियां और 207 कड़वक हैं। इस काव्य में कवि की कथनशैली, रस और अलंकारों का पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्य की भावना तथा प्रसंगवश नायिका भेद, ऋतुवर्णन और वेशभूषा प्रादि का सुन्दर चित्रण है।
___कवि की दूसरी कृति है 'सयल विहिविहाण कव्व' । यह एक विशिष्ट काव्य है। इस में 58 सन्धियां हैं। भाषा प्रौढ़ और सरल है। जिस रीति से इस काव्य में वस्तु-विधान और उसकी सालंकार एवं सरल प्रस्तुति की गई है वह कवि के अपभ्रंश भाषा पर अधिकार