Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जयति शासनम् जैन-जीवन लेखक ਸੂਡ ੴ ਬਰਜਰੀ प्रबन्ध-सम्पादक प्रकाशक चुन्नीलाल-भोमराज बोथरस धुवरी (आसाम) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति-स्थान -ગોચરાગ વોરા વુલાલ-વંર વોરા धुबरी (श्रामाम) गंगाशहर (राजम्यान) જ તાર તેરાપભ્ય સચી, गंगाशहर, बीकानेर (राजस्थान) साहिल्य-निकेतन ४०१३, नया बाजार दिही प्रथम संन्करग जनवरी १६३२ सशोषित-द्वितीय सन्करण ११०० प्रकिया अप्रैल १६३३ पृष्ट ११३ अशोककुमार गुरा आदर्श मुद्रणालय दाजो मन्दि निपट बीकानेर (राजस्थान Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : क : प्रकाशकीय , श्रीजैन श्वेताम्बर तेरापंथशासनमें सरसेका नौलखा परिवारसंभूत- साढे बारह वर्षके वयमें अष्टमाचार्य श्रीकालूगणी के वरदहस्त से दीक्षित श्रीधनराजजी स्वामी एक असाधारण विद्वत्ताके अधिकारी हैं । बम्बई - पञ्जाब आदि प्रान्तों में विचरकर उन्होंने जो अभिज्ञता प्राप्त की, वह बेजोड़ है । आपकी आचारकुशलता सर्वजनविदित है । आपकी व्याख्यानशैली सरल, सुबोध्य एवं हृदयग्राही है। आप सरलभाषा में दार्शनिकतत्त्वको साधारण जनके बोधगम्य बनानेकी क्षमता रखते हैं। संस्कृत, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में आपने अनेक पुस्तके रचकरके जैनके गूढ़तत्त्वोंको समझानेका सफल - प्रयास किया है | आपके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके और अनेक अप्रकाशित भी हैं। वर्तमान जैन - जीवन ग्रन्थ पहले पञ्जावसे प्रकाशित हुआ था । उसे देखनेका सौभाग्य मिला । उसमें जैनोंके ऐतिहासिक जीवनप्रसङ्ग हरएक समझ सके ऐसे ढग से वर्णित हैं । जनताके लिए विशेष उपकारक लगतेसे आवश्यक सशोधनके साथ उक्त ग्रन्थका पुन. प्रकाशन किया जा रहा है । मैं श्राशा करता हूँ कि पाठकगण इसे पढ़कर अपने जीवनको पवित्र एव उन्नत बनाकर मेरे प्रयासको सफल करेंगे, अस्तु ! भोमराज बोधरा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ख: भूमिका कोई व्यक्ति अपनी मुडीमे रंग लेकर कहता है कि मेरी मुट्ठी में हाथी है, घोडा है, बिल्ली है, और बाघ है । इस कथनने प्राय. नभी लोगोको श्रारचर्य होगा, कि यह क्या पागलको नी बाते बना रहा है । लेकिन वही मनुष्य उन रंग को पानीने घोल कर एक तुलिकामे कागज के ऊपर हाथो का आकार बनाकर ना है कि यह क्या है ? तो तीन सालका बच्चा भी बोल देगा'यह हाथी है' सज्जनो | चरित्र-चित्ररण इमीका नाम है । व्यानुयोग की गहरी बात भी उदाहरण, हृष्टान्त र युक्ति द्वा नहना गले उतर जाती है । इसी लिये तो श्रनुयोग-चतुष्टयमं धर्मक्यानुयोगको स्थान मिला है । नन्हे-नन्हे बालक भी अपनी दादी- माना को प्राय मोन के नमय कहते ही रहते है कि हमे कोई बहानी सुनायो ! नय वृद्ध मातायें सुनाती है और बच्चे बड़ी दिलचम्पीने नुनते है । वार्थ देखा जाय तो वे कहानियां बालकोका जीवन बनाती है, मूलभूत सम्बार डालती है श्रीर उनका भविष्य तयारीने फलित होता है तान्यायिकाए बहुत उपयोगी मानी गई 1 त्याविकाएं दो प्रकार होती है-एक ऐतिहाि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :ग: और दूसरी काल्पनिक । वैमे यथास्थान दोनों ही उपयोगी है। लेकिन विशिष्ट-ऐतिहासिक घटनाये तो वास्तवमे ही गहरी छाप डालती है और जीवनका नव-निर्माण करती है। इस पुस्तकमे जो जैनजगतमे प्रसिद्ध, शिक्षाप्रद, सुरुचिर, वैराग्यमे अोतप्रोत एव नैतिक व धार्मिकजीवनको उद्बोधन करनेवाली आख्यायिकानोका श्रीधनराजजीस्वामी ( जो एक कुशल कवि है और श्रीभिक्षुशासनमे सर्वप्रथम शतावधानी है ) द्वारा अतिसरल भाषामे एवं संक्षिप्त--सकलन करनेका एक नुन्दर-प्रयास किया गया है। विशेषता तो यह है कि महाभारत-जैसे कथासागरको आपने गागरमे ही भर दिया है। श्री महावीरकी जीवनकथा, प्रभु अरिष्टनेमीका उत्कृष्टत्याग, और गजसुकुमालका अडोलधैर्य आदि-आदि अनेक उज्ज्वल-जोवनप्रसग इस पुस्तकने बड़ी खूबीसे चित्रित किये गए है। __ अत. यह पुस्तक नवपाठकोके लिये व इतिहासप्रेमियोंके लिये बड़ी उपयोगी व प्रेरणादायक साबित होगी ऐमो मेरो दृढ धारणा है। निवेदक चन्दनमुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन जिन-किनी भी धर्मको जो कोई मानता हो, उन व्यक्तिके लिए उस चर्मका इतिहास जानना परम आवश्यक है। जैनधर्मका ज्या अर्थ है जैनके मूल सिद्धान्त कौन-कौनसे है ? जैनधर्म के मुख्यप्रवर्तक कौन थे ? इस समय कौनसे नीर्थकरका शासन चल रहा है ? तथा किम तीर्थंकरके शासनकालमे विशेपव्यक्ति कौन थे ? उपरोक्त प्रश्न यदि किमी जैनी-भाईसे कोई पत्र ले और वह वरावर उत्तर नहीं दे सके तो उनके लिए कितनी बडी विचारनेकी बात है, अस्तु ! उनी बानको लक्ष्य करके उम जेन-जीवन नामकी पुग्नकका निर्माण हुआ है। यद्यपि श्री श्रादिनाथपुराण, हरिवंशपुराग, महाभारत एवं श्री महावीरचरित्र श्रादि अनेक प्राचीन-ननन्ध विद्यमान है, फिर भी अतिविन्तृत होने के कारण उनका पढ़ना और समझना हर एक आदमीके लिए अत्यन्त कठिन है। उममें क्या है ? ग्म पुग्नकर्म मुग्यतया श्री ऋापन, मन्लि, अरिष्टननि. पार्य और महावीर उनसे पांच तीर्थकरीकी तथा उनसे सम्बन्ध रनवाले व्यनिविशेषोंकी जीवनियां स गृहीत है। जहा तक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ङ : हो सका है, बाते सक्षेप और बहुत ही सीधी-सादी भाषामे लिखी गई है, ताकि बाल, वृद्ध एवं अल्पशिक्षित भाई-बहिने भी पढ़कर प्राचीन - आदर्शपुरुपोंके जीवनको जान सके तथा उससे अमूल्य शिक्षाओं को ले सके । कहानियां दो तरह की होती हैं- एक तो बनी हुई और दूसरी बनाई हुई । यद्यपि अहिंसा आदि तत्त्वोंको समझाने के लिए अपनी बुद्धिसे बनाई हुई कहानिया भी सत्य है, फिर भी बनी हुई घटनाका महत्त्व कुछ और ही होता है । इस पुस्तकमे लिखी हुई बाते ऐतिहासिक हैं और प्राचीन जैनग्रन्थोंसे प्रमाणित हैं अतः निःसंदेह महत्त्वपूर्ण हैं । प्रेरणा आचार्यश्री तुलसी वार-बार यही प्रेरणा दिया करते हैं कि प्रामाणिक - साहित्यका सर्जन जितना भी अधिक हो उतना ही धर्मप्रचार विशेषरूपसे होगा । सम्भव है । इसी पावनप्रेरणा से यह पुस्तक तैयार हुई हो ! आशा ही नहीं, अपितु दृढ़ विश्वास है कि धर्मके जिन्नासु लोग इसे पढकर अवश्य लाभ उठायेंगे और मेरे प्रयासको सफल बनायेंगे । धनमुनि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम पृष्ठ पृष्ट । १. भगवान प्रपन देव २. मन्देवीमाताको मुक्ति २ ३ मुट्ठी कहानी कहा ! (माहवन्दी) 1. हायोगे उतरी! ५ पांच महलमें पोवनमान ६ दवा नही यो ७ मलि प्रभु विवाह नही दिया २१ है गुलामे गनके चाचा २४ २७. श्री सपा और बत्तमा २६ .' -गारे लहपुगीनाथ मनोकादा 2: कौरव-पाव ४१ १८ द्रौपदीले पांच पनि त्यो ८२ १५ भगवान पार्थनाय ५४ १६ प्रदेशका प्रश्न १८ भगवान महावीर १८. श्रीगौतमन्वानी १६. महार अभिनट फना ७३ २०. दो माधु जला दिए २१. फिज्जमाणे का? २२. श्रीजम्यून्यामी २३. पतन और उज्यान २४. आदर्य-अमादान २५ जनोपदी बनी प्रभागामाता यह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ exg ex जैन - जीवन 36166001 COEXC60 600 6466VC EXCEEEEEEXCE GDI ONCOND Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पहला भगवान् ऋषभदेव ___बहुत से लोग सुनी, सुनाई बात कह देते हैं कि जैनधर्म पार्श्वनाथ तथा महावीरस्वामी का चलाया हुआ है, जो अभी तीन हजार वर्षों के अन्दर ही हुए है । यह कथन विल्कुल असत्य है क्योंकि जैन धर्म के आद्यप्रवर्तक भगवान ऋषभनाथ थे। वे आज से असंख्य वर्ष पूर्व तीसरे बारे में हुए थे । सब से पहले राजा होने के कारण वे आदिनाथ भी कहे जाने लगे। युगलों का जमाना उनसे पहले राजा-प्रजा का कोई हिसाब नहीं था क्योंकि युगलधर्म चल रहा था । जीवनमर में पति-पत्नी केवल एक पुत्रपुत्री को युगलरूप से उत्पन्न करते थे और ४६,६४ एव ७ दिन उन्हें पालकर एकही साथ ग्वांसी,छींक एवं जमाई द्वारा मरकर स्वर्गमे चले ज ते थे एवं पीछे से वही जोड़ा पति-पत्नी के रूप में परिणत हो जाता था। उस समय असि, मसी कृषि, शिल्प एवं वाणिज्यरूप कर्म कोई भी नहीं करता था। जिस किसी भी वस्तु की आवश्यकता होती थी, स्वाभाविक कल्पवृक्षों द्वारा पूरी की जाती थी। ऋपभनाथ का जन्म काल के प्रभाव से क्रमश. कल्पवृक्षों की शक्ति में कमी होने लगी और युगलों में ईर्ष्या, द्वेप एवं कलह विशेषरूपसे बदने लगे। तब सात कुलकर(मुखिया)स्थापित किये गये। उन्होंने हाकार, माकार तथा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जीवन विधार से नीन दरड चलाए लेकिन अब समय के बाद उनका भी उन पन हो गया और लहाई-मागदे बन ही बढ गये 1 उम समय नाभि नामक मान कुन्न कर की पत्नी मरुदेवी की कुति से भगवान् ऋपम ने जन्म लिया । वह समय श्रमभूमि मनुष्यों को कर्मभूमि घनाने की कोशिश कर रहा था व युगलधर्म को बदल रहा था। परिवर्तन अब से पहले किमी का विवाह नहीं होता था, किन्तु भगवान प्रापम का दो कन्याओं से पाणिग्रहण हया। प्रागे कोई राजा नहीं होता था. परन्तु ऋापम का रायामिषेक किया गया और वे 'प्रादिनरेश कला | युगलों के समय मात्र एक जाडा (पुत्र-पुत्री) उत्पन्न होना था लेकिन नापमदेव के मरत-बावलि आदि १०८ पुत्र तथा बाली और सुन्दरी से दो पुत्रिया । युगलोका कोई वश नहीं होता था, परन्तु बाल्यावस्था में प्रभु को अनु विगेपप्रिय होने से उनका इन्याकुवंश कहलाया। आगे चल कर उनी का नाम मूर्गवंश एव रघुवंश हो गया। श्री राम-लक्ष्मण भी मी वंश मे हुए थे। भगवान ऋषभदेव ने तिरासी लाग्य पूर्व तक अयोध्या नगरी में गत किया चं जगत् में राजनीति और मंमारनीति का प्रचार लोगों का भोलापन उम उमाने के आदमी बहुत भोले-भाले थे और उनमें ज्ञान की की कमी भी बल्लन चीग होने से घामाविक अनाज उत्पन्न भानवरा मोल यादमी उसे पशुयों की तरह चर गये यत सारे T Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंग पहला विसूचिका रोग से पीडित हो गये। फिर प्रभु के कहने से अनाज निकालने लरो नो मुंह खुला होने से बैल उसे खाने लगे। प्रभुने कहाबैलों के मुंह बांध दो। उन्होंने मुंह बांव तो दिए. किन्तु काम पूर। होने पर भी अज्ञानवश नहीं खोले अतः वारह घड़ी तक बैल भूखेप्यासे ही खडे रहे। फिर पता लगने पर प्रभुने उनके मुंह खुलवाए । जंगलमे स्वाभाविक आग पैदा हुई । रत्न समझकर लोग उसे लेने दौडे। सबके हाथ-पैर आदि जल गये। प्रभु ने कहा-यह आग है। इसमे अनाजको पकायो । बस. कहने की हो देरी थी मनोंबन्ध अनाज़ आग मे डाल दिया गया, किन्तु नहीं निकालने से वह भस्म हो गया । तब प्रभु ने खुद मिट्टी का बर्तन बना कर लोगों को बर्तन बनाना सिखलाया। उस दिन से लोग बर्तनों मे अनाज पका कर खाने लगे। ऐसे जिस-जिस काम की आवश्यकता होती गई, मगवान् बतलाते गये एव उसका फैलाव जगत् में होता गया । दीक्षा और अन्तरायकर्म संसारनीति की शिक्षा देकर विश्व को धर्मनीति सिखलाने के लिये चार हजार पुरुपों के साथ प्रभु ने दीक्षा ली, किन्तु अन्तरायकर्मवश बारह महीनों तक अन्न-पानी नहीं मिला। कोई हाथी-घोड़ा हाजिर करता था। कोई सोना-चॉदी हीरे-पन्ने आदि धन लेने की प्रार्थना करता था तथा कोई रोटी पकाने के लिये कुंवारी कन्या लीजिए, ऐसे कहता था, लेकिन रोटी-पानी लेने के लिये कोई भी नहीं कहता था, कारण आज से पहले कोई भिक्षुक था ही नहीं। अनेकमत भूख-प्यास से पीड़ित होकर सारे के सारे चेले भाग गये। कोई कन्दाहारी तापस बन गया तो कोई मूल तथा फलाहारी । कोई Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਵੈਜ ਡੀਕਰ एकदटी हो गया वो कोई त्रिदण्डी । ऐसे अनेक मतों का प्रादु मत्र हो गया। ? अक्षयतृतीय) एक वर्ष के बाद बाहुलि के पौत्र श्रं यांशकुमार ने जातिस्मरणशान द्वारा भिक्षा की विधि जानकर प्रभु को इतुरम से पारण। करवाया | वह दिन ग्रनयतृतीया ( इत्रु तीज ) कहलाया । एक हजार वर्ष की घोरतपस्या के बाद प्रभु ने केवलज्ञानी बनार भारतीय स्थापन हिये । प्रापभसेन आदि ८४००० माधु हुए। वाली यादि ३००००० मानियो हई, माटे तीन लास श्रावक हुए और पोचला चौवन हजार भाविकाएँ हुई । माघ कृष्ण त्रयोदशी के दिन प्रभु दन हजार साधुओं के साथ कैलाश पर्वत पर मुक्ति में पधारे। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' प्रमङ्ग दुमरा मरुदेवी माता की मुक्ति श्रीमरुदेवीमाताने बाह्यरूप से न तो कोई त्याग किया और न कोई तपस्या ही की । तपस्या क्या ? साधु का बाना मी नहीं लिया, फिर भी आन्तरिक शुद्धि से हाथी के होदे पर बैठी-बैठी ही सिद्धू बन गई । ऋषभदेव भगवान ने एक हजार वर्ष तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। इधर माताजी पुत्र विरह से बहुत व्याकुल हो रही थी, कारण उन्हें इनका कोई समाचार नहीं मिला था । दादीजी के दर्शनार्थ एक दिन चक्रवर्ती भारत आए और उदासीनता का कारण पूछा। गद् गद् स्वर से दादी ने कहा- बेटा 1 तुझे क्या फिक्र है, हमारा चाहे कुछ भी हो। तू तो चक्रवर्ती के पद में फूल रहा है और राज्य के आनन्द मे मग्न हो रहा है । मेरा इकलौता पुत्र जो घर से निकल कर साधु बना था, उसे एक हजार वर्ष हो गए। क्या तूने कभी उसका पता लिया है ? वह कहां रहता है ? क्या खाता है ? सर्दी, गर्मी और बरसात से उसे कौन बचाता है ? मै उसे पास बिठा कर अपने हाथों से खिलाती — पिलाती थी, एवं हर तरह से उसकी रक्षा करती थी । अत्र वह मेरा बेटा भूखा प्यासा कहीं जगलों मे भटकता होगा, कौन पूछे उसका सुख और कौन करे उसकी सम्भाल । वे परम आनन्द में हैं दादीजी ! आपके पुत्र सर्वज्ञ भगवान् बन गये हैं और वे परम Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जीयन "प्रानन्द मे है। जब वे यहाँ पधार तप आप देखना उन के ठाट-बाट। पुन के समाचार सुन कर माताजी के हर्ष का पार नहीं रहा । समयानन्तर भगवान वहाँ पधारे, समवसरण की रचना हुई एव उन्द्र श्रादि देवता दर्शनार्थ । भरतजी ने दादीजी को भगवान के पधारने की बधाई दी। माता मरुदेवी ने मंगलगान शुरू करवाए एवं भरत 'प्रादि पोते, पड़ोते, लड़पोते तथा उनकी पत्नियों एवं अनेक दाम-दासियों के परिवार से वह हाथी पर चढ़ कर भगवान के दर्शनार्य चल पड़ी। उपालम्भ दूर से ज्यों ही माताजी ने पुत्र के दर्शन किए, वह मोह में मग्न होकर ऐसे उलाहना देने लगी। घरे बेटा तो तेरे लिए दिनरातरी रही थी किन्तु तं तो मुझे कभी याद ही नहीं करना, एक चार पांगुल की चिट्ठी लिखने की भी तुमे फुर्सत नहीं मिलती। येटा तू तो मुख मै मों को ही भूल गया। हां! हां ! भूलना ही था। तुझे मेरी क्या गज । मिर पर तेरे तीन छन्न हैं, चामर वीजे जा रहे है. ऊपर अशोकवच है. बैठने के लिए स्फटिकसिंहासन है और उन्द्रइन्द्रागी हाथ जोड़ कर तेरी सेवा कर रहे है। अब मां की याद आए मी तो कैसे ! केवलजान मेमो, विलाप करते-करते ही विचार बदले और सोचने लगी किने नो नीनराग भगवान है उनके च्या मां और क्या बेटा। मै व्यर्थ की मोट मे पागल हो रही । यम, माताजी क्षपक-श्रेणी चढ़ गई और यही हाली पर बैठी--बैठी फेवलज्ञान पा कर मोक्ष पधार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 1 प्रसंग दूसरा गई । भगवान्ने व्याख्यानमें फरमाया कि मरुदेवी माता मुक्त हो गई । भरतजी चमककर दादीको सम्मालने लगे तो मात्र शरीर ही मिला। बड़ा भारी आश्चर्यजनक दृश्य था । लोग कहने लगे कि पुत्र हों तो ऐसे ही हों। एक हजार वर्षकी घोर तपस्यासे जो अनमोल ज्ञानरत्न प्राप्त किया, वह सर्वप्रथम अपनी परम पूज्य माताजीको लाकर दिया एवं उन्हे अनन्त मुक्तिसुखों मे भेजा । 6 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ phpain प्रसङ्ग तीसरा मुट्ठी कहाँ की कहाँ (बाहुवलि) कामको जीतना जितना महत्व रखता है; उनना वृद्ध अवस्थामें नहीं रखता। धन स्वजन, एवं विजय के सद्भावने साधु चनना जितना सुटिकल कहनाता है, इनसब ची के अभाव में साधु बनना उतना मुश्किल नहीं कहा जा सकता । हारकर तो हर एक घर से निकल पाता है, परन्तु जीतकर त्याग करने वाले महापुरुष तो बाहुबलि जैसे विरले ही होंगे। भगवन नामदेव के सौ पुत्र थे । उनमें भरत और बाहुबलि दो मुख्य थे। प्रभुने गरतको श्रग्नी गडी ढी, बाहुबलि को तक्षशिला का राज्य दिया और शेष पुत्रोंको भी यथायोग्य कुछ देकर स्वयं माधु यन गये । भरत चर्ती थे, प्रतः उन्होंने सारे भरतक्षेत्र में अपनी ना स्थापित की। प्रट्टानत्रे माइयोंने भरत की सत्ताको स्वीकार न करके प्रभु के पास दीक्षा ले ली। जब बाहुबलिको घाना माननेके लिये गया तो वे नहीं माने। तन दोनों भाइयोंका चारह साल तक संग्राम हुआ। न्यून की नदियों वह चलीं, फिर भी कोई निपटार नीं हो सका | पांच युद्ध मानव सृष्टि प्रारम्भ में ही ऐसा प्रलय देखकर देवता वीचमें पदे और दोनोंको त्यो समकार निम्न लिखित, पाच युद्ध निश्चित किये | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तीसरा (१) दृष्टियुद्ध (२) वचनयुद्ध (३) बाहुयुद्ध ( ४ ). मुष्टियुद्ध (५) दण्डयुद्व । १ दृष्टियुद्धः- दोनों माई स्थिरदृष्टि होकर एक दूसरेके सामने खड़े हो गये, किन्तु भरतकी आखों से पानी चल पड़ा ओर वे हिलने लगीं। २. ववनयुद्धः- चक्रवर्तीने प्रचण्ड-सिंहनाद किया, किन्तु बाहुबलिने अपने सिंहनादसे उसे ढाक दिया। 3. बाहुयुद्ध - दोनों वीर कुश्ती करने लगे और विचित्रखेल दिखाने लगे। लोग देख ही रहे थे कि बाहुबलिने भरतको गेंदकी तरह आकाशमे उछाल दिया। यह दृश्य अद्भुत एवं रोमांचकारी था। अब भरतको जीने की भी आशा नहीं रही थी, लेकिन कनिष्ठ भ्राताके दिलमे भ्रातृ-प्रेम उमड आया और उसने नीचे गिरते मरतको मेल लिया एव मौतसे बचा लिया। इस समय भरत मात्र पृथ्वी की तरफ झांक रहे थे। ४. मुष्टियुद्ध.-- मरतने लघुभ्राता के सिरमे मुका इतने जोरसे मारा कि वह क्षणभर के लिये स्तव्ध-सा हो गया, किन्तु शीत्र ही सम्मलकर उसने ऐसा विचित्र मुष्टि प्रहार किया, जिस. से भरत वेहोश हो गये एवं उचित उपचारोंसे उन्हें सचेत किया गया। ५. दण्डयुद्ध'-- चक्रवर्तीने दण्डरत्नको घुमाकर इतने जोरसे पटका. जिससे बाहुबलि घुटनों तक जमीनमें घुस गये। वे तुरन्त ही उछल कर बाहर आए और दण्डके बदले में दण्डका इतना जबरदस्त जवाब दिया कि चक्रवर्ती कण्ठ तक पृथ्वी में प्रविष्ट होगये एवं देवों द्वारा उनकी हार घोषित करदी गई। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जीवन मर्यादाका भंग हारका दुख न मह मरने के कारण भरतने अपनी मर्यादाका भग करके यापलिको मारने के लिये चक्र चलाया, लेकिन दिव्यचमने उन चध नहीं किया प्रत्युत उन्हे प्रणाम करके लोट याया। यह देखकर बाहपलिके कोधका पारावार नहीं रहा और वे विकराल कालरूप बन कर मुष्टि घुमाते हुए मरतको मारने चले। देवोंने पर पक कर उन्हें शान्त किया, तब वे बोले-मेरी गुष्टि खाली नहीं जा सकती। लो। मरत के सिरके पदले में उसे 'अपनेही सिर पर रग्यता हूँ। ऐसे कहकर वहीं पर पंचमुष्टि लोचकर लिया और साधु बनकर ध्यानस्थ हो गये। 'म भरतकी आंखें म्युली और उन्होंने भाई के चरण कर विनम्र शन्दों मे कहामाई । क्षमा करो, मेरी तुचताको भूल जाओ और राज्यमे चलो। लेकिन उन्हें राज्यमे अब क्या चलना था, उन्होंने तो त्याग कर दिया मो कर ही दिया। धन्य हे महायली वाहपलि के आर्दशत्यागो। RE Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग चौथा हाथीसे उतरो जो काम लोहेका तीर नहीं कर सकता, वह काम वचनका तीर कर सकता है। शीर्षकमे लिखे हुए हाथीसे उतरो इस वाक्यने क्या ही कमाल कर दिया। एक अकडे हुए महामुनिको झुका दिया और सर्वज्ञ मगवान् वना दिया। क्या आप जानते हैं कि वे महामुनि श्रीबाहुबलि थे और वचनका तीर मारनेवाली महासतिया ब्राह्मी-सुन्दरी थीं। सुन्दरीकी तपस्या भगवान् ऋषमदेवको केवलज्ञान होते ही ब्राह्मी-सुन्दरी दीक्षा लेने लगीं, किन्तु भरतराजाने अतिसुन्दरताके कारण सुन्दर को आज्ञा नहीं दी एवं उससे विवाह करना चाहा। सुन्दरीने विवाह करने से साफ इनकार कर दिया। फिर भी मरत नहीं माने और उसे अपने महलोंमे रखकर स्वयं दिग्विजयाथ चले गये। भरतक्षेत्र की विजय प्राप्त करने मे उन्हें साठ हजार वर्षे लगे। पीछेसे सुन्दरीने प्रायविलकी तपस्या शुरू कर दी। घोर तपस्या के कारण उसका शरीर विल्कुल निस्तेज-सौन्दर्यहीन एवं क्षीण होगया। चक्रवर्ती भरत जब वापस आए तो उन्होंने वहाँ मात्र अस्थि-पिंजर देवा । बस, देखते ही उनका विकार शान्त हो गया और सुन्दरीको दीक्षाकी अनुमति दे दी एवं वह साध्वी वनकर आत्मसाधना करने लगी। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैन जीवन ध्यानस्थ गुफामें-श्री बाहुबलि घर श्री यायलि युद्ध में विजयी होकर सयमी तो यन गये. किन्तु अभिमानत्व हाथीसे नहीं उतर सके। उन्होंने मोचा-यदि भगवान के पास जाऊँगा तो छोटे भाई जो मेरेसे पहले साधु बने हैं, उन्हें नमस्कार करना पडेगा। ऐसा विचार करके वे महामुनि ध्यानस्थ होगये। तिभाकार खडे खडे उनको एक वर्ष बीत गया। उनके शरीर पर बेलियाँ दा गई, पक्षिोंने घोंसले बना लिए, सोर मटाने लगे तथा हाथी, मिह, चीते वगैरह कोई यम्मा समझपर उमा महारा लेकर अपने शरीर को खुजलाने लगे। भाई ! हाथीसे उतगे इतना कुछ होने पर भी महामुनि मेरुवत् निश्चल रहे। फिर भी केवलज्ञान नहीं हुश्रा । एक दिन प्रस्मात् पापाज श्राई. भाई। हाथीसे उतरो अन्यथा मुशि नहीं मिलेगी। सुनते ही मुनि चमके और विचार करने लगे। अरे । यह क्या ? कहां है. शादी में दो सायुहूँ और एकवर्षसे भूना-प्यामा ग्यदा हूँ । प्रचार करनेवाली मी प्राधी-सुन्दरी माधिया है जो "प्रसत्य तो योल ही नहीं सकतीं। बस, समझ गये और नान हाथी से पतर कर क्यों ही अपने छोटे माउयोको बन्दना करने लगे, उन्हें वहीं पर केवलज्ञान हो गया। फिर भगवान के दर्शन किये एवं अन्त मे मुक्तियामको प्राप्त हुए। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पांचवां काँचके महलमें केवलज्ञान चक्रवर्ती - भरत दुनिया मे दो तरह के मनुष्य होते हैं - एक तो मायाके मालिक और दूसरे मायाके गुलाम । मालिक चीनीकी मक्खीके समान स्वाद लते हैं और उसमे फंसते नहीं, परन्तु गुलाम श्लेष्मकी मक्खीकी तरह मायामें फंसकर बरबाद हो जाते हैं एवं स्वाद भी कुछ नहीं ले पाते । श्लेष्मकी मक्खी तो सारी दुनिया बन ही रही है, किन्तु धन्य तो वे हैं जो चीनोकी मस्त्री बनकर भरत-चक्रवर्तीवत देखतेदेखते उड़ जाते हैं। भरतकी ऋद्धि बाहुबलि आदि बन्धु-गण और वहिन सुन्दरीकी दीक्षाके बाद मरत अयोध्यामे राज्य करने लगे। उनके नव निधान थे, चौदह रत्न थे, बीस हजार चान्दीकी खाने थी, बीस हज़ार सोने की खाने थीं, सोलह हजार रत्नों की खानें थीं। चौसठ हजार रानियों थी, बत्तीस हजार राजा उनकी आज्ञा मानते थे एवं पच्चीस हजार देवता उनकी सेवा करते थे। इतना कुछ होते हुए भा वे अन्दरसे बिल्कुल उदासीन एवं विरक्त रहते थे और खुदको राजा न मानकर एक मुसाफिर मानते थे। यद्यपि चक्रवर्ती होनेके नाते उनके चौरासी लाख हाथी थे, चौरासी लाख घोडे थे, चौरासी लाख सांग्रामिक रथ थे और छियानबे करोड़ पैदल सेना थी। समय भरतका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेन जीवन १४ समय पर वे युद्ध मी करते थे, देश-द्रोहियों को दण्ड मी देते थे और इधर अपनी प्रिय प्रजाका पालन भी पूरे ध्यान करते थे। लेकिन यह सब काम उनके लिए मात्र नट की तरह पार्ट अदा करना था। अनासनिकी पराकाष्टा उनकी अनासक्ति पदवी-पढ़ती इतनी बढ़ गई थी कि एकदिन वे अपने काचके महतमे वस्त्र निकालकर नहाने लगे। उस समय उनको अपना शरीर नग्न-सा प्रतीत हुआ। मात्र एक अंगुली; जिसमे मुद्रिका पहनी हुई थी, मुन्दर लगी। अंगुलीसे मुद्रिका हटा ली तो वह भी नंगी होगई। फिर सारे वस्त्राभूपण धारणा कर लिए तो शरीर पूर्ववत् सुन्दर लगने लगा। फिर निकाल दिए तो असुन्दर लगने लगा। पस, कुन समय यही काम चालू रहा। अन्त में उन्हें विश्वास होगया कि शरीर तो असुन्दर और नग्न की है, यह शोमा अपरके पदार्थोकी है अतः उस शीरका मोह करके प्रात्माको भूल जाना अमानके सिंघा पोर कुछ नहीं है। चक्रवर्ती ऐमा विचार करते करते शुक्लध्यानमे जुद गये और घातिक काँका नाश करके उमी कांचक महल में केवलज्ञानी बन गये। वान्नमें जो अनासकमावसे काम करते हैं, उनके कोका बन्धन याटुन कम होता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग छट्टा दवा नहीं की ( राजर्षि-सनत्कुमार ) ममी कहते हैं-काया कच्ची है, कांचकी गिलास है, मिट्टी की ढेरी है एवं देखते-देखते नष्ट होने वाली है। लेकिन थोड़ासा सरदर्द होते ही एस्प्रोकी गोलियाँ खोजी जाती हैं, थोड़ा-सा बुखार होते ही इन्जेक्शनकी तैयारियाँ होने लगती हैं, और तो क्या। जरासी बदहज़मी होने पर मी फटा-फट सोडेकी बोतल खोली जाने लगती हैं। अब बतलाइए, खाली कायाकच्ची कहने से क्या बना ? वास्तवमें काया कच्ची श्रीसनत्कुमार चक्रवर्ती (जो श्रीधर्मनाथ और शान्तिनाथ भगवान् के मध्यकाल में हुए) ने समझी थी। एक जीमसे कितना-क कहा जाये। उन्होंने सात-सौ वर्ष तक अनेक मयकर रोग सहन किए, किन्तु दवा बिल्कुल नहीं की। देवोंका आगमन एक दिन स्वर्गमे इन्द्रने कहा कि सनत्कुमार-चक्रवर्तीका जैसा रूप है, वैसा आज दुनियामें किसीका नहीं है। यह सुनकर परीक्षार्थ दो मिथ्यात्विदेवता वृद्धत्राह्मणोंका रूप बनाकर पाए । यद्यपि चक्रवर्ती उस समय स्नान कररहे थे, फिर भी अतिउत्सुकता जानकर उन्हें अन्दर आने दिया। आश्चर्यकारी रूप देखवर प्राह्मण बोले, माई ! रूप तो वास्तव मे रूप ही है, इसकी जितनी प्रशंसाकी जाए थोड़ी है। चक्रवर्तीके मनमे प्रशंसा सुनकर अहंकार हुआ। वे कहने Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जीवन लगे- अरे! अमी क्या देखरहे हो, जप में सज-धज कर समामें अब देखना । व्यवस्थित स्थानमें नाम ठहरे और उधर महा राजने नहा धोकर मदाकी अपेक्षा कुछ विशेष शृंगार किए एवं वे राजसमामे विराजमान हुए। रूप बिगड़ गया ब्रामण आए, किन्तु स्प देसकर नाक सिकोड़ते हुए कहने लगेमहाराज! रूप तो विगढ़ गया। चिगढ़ क्या गया, "प्रापके शरीरमे की भी पद गये। देखिए, पीकदानीमे जरा-सा थूक कर । साश्चर्य चक्रवर्ती ने शुक्कर देखा तो पान मही थी। बन, रंगमे भंग हो गया और साराही खेल बदल गया। चक्रवर्तीने उमीक्षण राज्य वैभव को त्याग दिया एवं साधु बनकर अपने सुकुमार शरीरको तीव्रतपस्या में लगा दिया । रोग दिन-परदिन पटते गचे, अन्तमे गलितकुष्ट होकर सारा शरीर सड़ गया। फिर मी मुनिने बिल्कुल दवा नहीं की और मेस्वत् बड़ोल रहकर ध्यान एवं तपस्या में ही लीन यने रहे। पुनः प्रशंसा राजपिके अद्भुत धैर्यको देखकर इन्द्रने देव ममा पुनःकहामाधु संमारमे एप से पदते चढ़ते हैं, लेकिन महर्पि-सनत्कुमार जैसे दवजित और धैर्यवान मुनि आज दूसरे कोई नहीं है। लगमग मात-सी योंसे घोर-पीडा सहन कर रहे हैं, फिर भी कई दया नहीं करते। अरे! दवा तो कर ही क्या, दवा करने का मन भी नहीं शरते। पहलेवाले वे ही दो देवता परीक्षार्थ यद्यरूपसे उपस्थित हो कर प्रार्थना करने लगे-प्रमो! कृपया हमारी औषधि लीजिए एवं बीमारी का प्रतिकार करके इस शरीरको स्वस्थ कीजिए। दो-तीन पार विनति करने पर ध्यान बोलकर मुनि बोले। माई ! तुम शरीर ही बीमारी मिटाते हो या आत्मासी मी मिटा सकते हो ? यधयोले Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग छठा महाराज! आत्माकी तो वीमारी आप जसे महापुरुष ही मिटा सकते है, हम तो मात्र शरीरकी ही बीमारी मिटाते हैं। यह सुनते ही राजर्पि ने अपने थूकसे एक अंगुली भेरकर सडे हुए शरीर पर लगाई। बस, लगानेकी ही देरी थी, जितनी दूर मे थूक लगा। शरीर कंचन-वर्ण होगया और देवता देखते ही रह गये। ऋपि बोले, भाई! तनकी वीमारी मिटाने में क्या बढ़ी बात है ? बड़ी बात तो मनकी बीमारी मिटानेमे है, अतः ध्यान एव तपस्या द्वारा इसीका इलाज कररहा हूँ। धन्य धन्य कहते हुए देवता प्रकट हो गये और मुक्त कंठोंसे मुनिके गुनगान करते हुए स्वस्थान चले गये। मुनिने एक लाख वर्ष संयम पाला और अन्तमे केवलज्ञान पाकर परमपदको प्राप्त हुए। ऐसे-उत्तम पुरुपोंके स्मरण मात्रसे निःसन्देह आत्मकल्याण होता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सातवा मल्लि प्रभु ज्ञानी कहते हैं कि शरीरमें साढ़े तीन करोड हैं और साढे छः करोड़ रोग हैं। ऊपरसे चाहे कितने ही शृङ्गार सझे जाएं, किन्तु अन्दर दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है। यह बात मल्लिमभुने बहुत ही युक्तिसे समझाई थी और मोह-अन्ध छहों नरेशोंको वैरागी बना दिया था। मल्लि-प्रभु मिथिलापति कुम्भ राजानी रानी प्रभावतीकी एक रति रूपा कन्या थी। यौवन आने पर उसकी सुरम्य नीलकान्तिकी महिमा दूर-दूर तक फैल गई और बडे-बड़े नरेश याचना करने लगे। किन्नु कुमारीने वचपनसे ही ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया था अतः जो कोई भी विवाहसम्बन्धी प्रश्न रसता था, मुग्म नरेश उन्कार कर देते थे। एक बार महिनुमारीसे जबरदस्ती विवाह करनेके लिए अगा, युणाल, काशी, कौशल, कुम और पंचाल इन : देश के राजाओंने एक ही नाथ मिथिलानगरी पर घेरा डाल दिया और गुरम राजाले दूतों द्वारा कहलवाया कि या तो वे उन्हें अपनी पुत्री दे दें या लड़ाई करने को तैयार हो जाएँ। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सातवां मल्लिकुमारीकी युक्ति मिथिलापति घबरा गए और चिन्तासमुद्र में गोते लगाने लगे, क्योंकि पुत्री तो किसी भी तरह विवाह करनेको तैयार नहीं थी और छहों नरेशोंसे युद्ध करनेकी खुदके पास शक्ति नहीं थी। कुमारी ने पिताजीको सान्त्वना दी और राजाओंसे कहलवा भेजा कि आप लोग उत्तावल न करे, हर एक काम शान्तिसे सम्पन्न होता है। मै आपसे अमुक दिन मिलूगी और अपने विवाह के विपयमें बातचीत करुंगी। ऐसे छहों नरेशोंको शान्त बनाकर मल्लिकुमारीने शीघ्रातिशीघ्र एक मनोहर मोहनशाला बनवाई और उसमे ठीक अपने ही जैसी पुतली स्थापित की। पुतली अन्दरसे बिल्कुल पोली थी एव उसके मस्तक पर एक द्वार था। कन्या हर रोज़ भोजनका एक ग्रास उसमें डाला करती थी। ज्योंही वह भर गई, अच्छी तरह ढक्कन लगा कर उसे अनेक दिव्य-वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित कर दिया और यथोचित व्यवस्था करके छहों मेहमानोंको आमन्त्रण दे दिया। ___ मोहनशालामें मेहमान वेचारे आमन्त्रणकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे, तुरन्त आए और पुतलीको सच्ची मल्लिकुमारी समझकर स्तब्धसे होकर :: दांतोंमें अंगुलियां धरने लगे। इतनेमें अद्भुत रूपछटा फैलाती हुई ३ कुमारी वहां आई। आतेही उन नरेशोंकी आंखें खुलीं। अरे! रे। हम तो भूल ही गये, ऐसे कहकर वे विस्मित नेत्रोंसे कुमारीकी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन जीवन तरफ देखने लगे। इधर कुमारीने जाते ही उस पुतलीका ढक्कन गोला। बस, सोलते ही सड़े हुए अनाजकी ऐसी बदबू आई कि सारे नाक बन्द करके मुह बिगाडने लगे। तंव मल्लीभरीने इंस कर पहा-आप लोग मुह क्यों बिगाड़ रहे हैं ? बदबू ही से तो न? अब बतलाए। जिल मेरे शरीर पर श्राप मोहित होरहे हैं उसमे हाइ-मांस, मल-मूत्र आदि अशुचि-पदाकि सिवा और कौन-सी अच्छी चीज़ है छोडिए इस स्पके मोहको और कीजिए अपने पूर्वजन्मको याद ! जब हम सातों मित्र-मुनि मिल कर चोरतपस्या कर रहे थे, तब मने पापक साथ तपस्याम कुन्छ माया (कपट) की थी प्रतः तीर्थकररूपसे अवतरित होकर मी में न्त्री बन गई। बस ! सुनते-सुनते ही हों नरशों को पूर्वजन्मका मान होगना और सारा खेल ही बदल गया। दीक्षा और मुक्ति मलिप्रभुने सयम लिया और घानिकम्मका क्षय करके अरिहन्तपदको प्राप्त किया। उधर छहों राजा भी साधु बनकर प्रभु भागे गण वर कहलाए। प्रभु सौ वर्ष तक बरमे रहे और नामी वर्ष मयम पालकर गगनगिर पर्वत पर गणधरों सहित मोक्ष पधारे। जय हो! जय हो ! श्रीमल्लिप्रभुकी। - - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग आठवां विवाह नहीं किया (भगवान् अरिष्टनेमि) "सब लोग जीना चाहते हैं कोई भी मरना नहीं चाहता अतः किसीको मत मारो।" यह शाखंबाणी हरएक प्राणी पढ़ते है। किन्तु भगवान् अरिष्टनेमि ने इसे क्रियात्मकरूप मे परिणत करके दिखलाया एव दयामावसे प्रेरित होकर विवाह-मण्डपके पास आ कर भी विवाह विना किये ज्यों के त्यों वापस लौट गए। सौरिपुर नगरके यदुवशीय राजा समुद्रविजयकी महारानी शिवादेवीकी कुक्षिसे श्रावण शुक्ला छठको प्रभुका शुभ जन्म हुत्रा था। श्रीकृष्ण उनके चचेरे बडे भाई थे। जरासन्ध राजाके डरसे सारे ही यादव सौराष्ट्र देशमें चले गये और वहां द्वारकानगरी बसाकर श्रीकृष्णके आधिपत्यमें रहने लगे एवं श्रीनेमिकुमार क्रमशः वृद्धि पाने लगे। द्वारकामें हलचल एक दिन मित्रोंके साथ क्रीड़ा करते हुए वे आयुधशालामें पहुंचे और खेल ही खेलमे श्रीकृष्णके दिव्यशंख को उठाकर जोर से वजा दिया। शंखकी प्रचण्डआवाजसे सारी द्वारकामे हलचल मच गई। इस अनूठे पराक्रमको “देखकर श्रीकृष्ण उनसे पाणिग्रहण करनेका आग्रह करने लगे। प्रभुने काफी आना-कानी की, लेकिन सभी तरहसे इतना दवाव डाला गया जिससे अन्तमे उनको मौनी ही बनना पड़ा और विवाहकी कार्रवाई चालू कर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जीवन दी गई। प्रभुकी बरात महाराज प्रसेनकी सुपुत्री रानीमती (जिसके साथ पिछले पाठ जन्मोंफा प्रेम था) से नेमिकुमारका सम्बन्ध किया गया और कृष्ण-चलमद्र आदि यादवनरेश एक विशाल वरात लेकर बढी धूमधामसे उनका विवाह करने के लिए चले। इधर महाराज उग्रसेनने भी विवाहके शुभअवसर पर बड़ी जबरदस्त तैयारियों की। वरातियोंके मोजनार्थ अनेक पशु-पक्षी तथा नाना प्रकारकी अन्य भोजनसामग्री एकत्रित की । इधर राजकुमारी राजीमती अनेक मखियोंके माय रंगमएडपमे अपने भावीपति भगवान थरिष्टनेमिकी प्रतीक्षा करती हई स्वकीय सामाग्यकी सराहना करने लगी। परिवर्तन राजकुमारनेमि ज्यों ही विवाहमण्डपके पास पाए त्यों ही उन्होंने श्रावन्दन करते हुए अनेक पशुपतियोंको देना । सारथिसे . उनका कारण पृथा, तब उसने कहा-आपके विवाहमें एन सबका । मोजन होगा। यह सुनकर पामिन्यु भगवानने मोचा, गरि मेरे मागरमा गोमा या होगालोमा विवाद मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं Eri I से विचार कर उसी समय वापस लौट चले।नी गामा पासवाना, गम्नमें उनका नाम सभी दया है। दया Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग आठ वां और मोहका भेद समझनेवाले पुरुष तत्त्वज्ञानी विरले ही हैं। रंगमें भंग भगवान् के वापस फिरते ही रंगमें भंग हो गया और हाहाकार मचगया। दोनों ही पनोंके मुख्यपुरुपोंने काफी कुछ कोशिशें की, लेकिन प्रभुने एक भी नहीं सुनी। स्वस्थान आकर परम्परागत-व्यवहारानुसार वार्पिकदान दिया (जिसमे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख एव वर्ष मे तीन अरव अठासी करोड अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी) फिर सहस्राम्रवनमे इन्द्रादि देवों एवं कृष्णादिनरेशोंके सम्मुख पंचमुष्टि-लौच करके उन्होंने भागवती दीक्षा स्वीकार की। चौवनदिन बाद मोहकर्मका नाश करके वे केवलज्ञानी बने और बाईसवे तीर्थंकर कहलाए । कृष्ण-वासुदेव भगवानके अनन्य भक्त थे। उन्होंने प्रभुकी बड़ी सेवाएँ की। प्रद्यु - म्नकुमार आदि कृष्ण के पुत्रों एव सत्यभामा, रुक्मिणी आदि अनेकों रानियोंने प्रभुके पास संयम स्वीकार किया। विशेष उपकारके कारण भगवान् द्वारकानगरीमे बहुत बार पधारे। उनके शासनकालमे अठारह हज़ार साधु हुए, राजीमती आदि चालीस हजार साध्वियों हुई । एक लाख ६६ हजार श्रावक हुए और तीन लाख ३६ हज़ार श्राविकाएँ हुईं। प्रभु तीन-सौ वर्ष घरमे रहे और सात-सौ वर्ष संयम पालकर पांच-सौ छत्तीस साधुओं के साथ रैवताचल पर्वत पर निर्माणको प्राप्त हुए। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग नौवां गुफामें ज्ञानके चाबुक कालेनागके साथ सैनना मुश्किल है, मेरुपर्वतको हाथ पर उठाना कठिन है, समुद्रको भुजासे पार करना दुष्कर है, किन्तु न सभी कार्योंसे काम विकारको जीतना कहीं लाखों-करोड़ों गुना दुष्करतम है | बडे-बड़े ऋषि-मुनि इसके आगे हार गये हैं, भ्रष्ट होगये हैं तथा श्रपना सर्वस्न खो बैठे हैं । लाख-लाख धन्यवाद तो उनको है, जिन्होंने स्वय तो कामको जीता सो जीता ही, लेकिन महामती राठी की तरह दूसरों को भी ज्ञानके चाबुक मारकर रास्ते पर ला दिया । राजीमती और रथनेमि राजीमती महाराज उनकी पुत्री थी और भगवान् श्ररिष्टनेनिके साथ उसका विवाह निश्चित हुआ था, किन्तु भावीवश उसे बीच ही में छोड़कर प्रभु संयमी बन गये। पीछेसे उनके छोटे भाग्य राजीमती विवाहकी प्रार्थनाकी । सतीने कहा- देवर प्रभुकी छोटी हूँ, अतः वमन के समान हूँ । क्या यमनको पौवा कोई मला आदमी साता है ? रथनेमिको वैराग्य होगा और वे साधु बनकर घोरतपस्या करने लगे । निरनारकी तरफ भगवान अरिष्टनेमिको केवलज्ञान होने के बाद उधर राजी aata मी बीच एवं यद साथियों में मुख्या वनी । एक दिन यह Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रसङ्ग नौवां साध्वीसंघके साथ प्रभुके दर्शनार्थ गिरनार पर्वत जारही थी। अचानक जोरसे वर्षा आगई। साध्वियों इधर-उधर जहाँ भी स्थान मिला, खड़ी रहगई एवं राजीमती एक गुफामें जाकर अपने वस्त्र निचोड़कर सुखाने लगी, किन्तु उसको पता नहीं था कि अन्दर रथनेमिमुनि ध्यान कररहे हैं। अचानक विजली चमकी और मुनिने एकान्तमै राजीमतीका अदभुत रूप देखा। . मन विचल गया मुनिका मन विचल गया। वे मुनिपदका भान भूलकर भोगकी प्रार्थना करने लगे। महासती चमकी एवं शीघ्र ही वस्त्रोंसे अपने तनको ढांककर अलौकिक साहसमरी वाणीसे कहने लगीमुने ! आप कौन हैं, आपका कुल कितना पवित्र है, किस वैराग्यसे आपने दीक्षा ली है, क्या आप सब कुछ भूल गये ? जो ऐसी घृणित बात कररहे हैं। मैं त्यागे हुए मोगोंको सपनेमे भी नहीं चाहती आप तो क्या, साक्षात् कुवेर, इन्द्र और कामदेव भी आ जाएं तो मी मै परवाह नहीं करती। आप लाख-लाख धिक्कारके अधिकारी हैं, जो मुनिवेषको लजा रहे हैं। मुनि होशमें आये महासतीके वाक्योंसे मुनि होशमें आए और भगवान्के चरणोंमे अपनी दुष्प्रवृत्तिका प्रायश्चित्त करके जन्ममरणसे मुक्त ' हुए। महासती राजीमतीने भी शुद्ध संयम पालकर केवलज्ञान , प्राप्त किया एवं भगवान् अरिष्टनेमिसे चौवन दिन पहले सिद्धहै गतिको प्राप्त हुई। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग दस श्री कृष्ण और बलभद्र जो थोड़ीसी ताकत पाकर अकड़ जाते हैं, जो दो पैसे कमाने पर फूलकर ढोल बन जाते हैं और दो चार बेटे - पोते होने पर जिनकी आंखें जमीन पर नहीं टिकतीं, उन सज्जनोंको कृष्ण महाराजा जीवन श्रवश्य पढ़ना चाहिए। जिनके जन्म समय कोई - गीव गानेवाला नहीं था और मध्य- समय सहस्रों नरेश एवं देवता हाजिर रहते थे तथा अन्तममय कोई रोनेवाला भी पास नहीं रहा । जैन इतिहासानुसार लगभग ८७ हजार वर्ष पूर्व कृष्णका जन्म मथुरा पुरीमें मात्र कृष्ण अष्टमीकी रातको हुआ था । एक दिन राजा महारानी जीवयशाने श्रतिमुक्त मुनिका हास्य क्रिया, तब मुनिने क्रुद्ध होकर कहा-इस देवी (जो तेरी ननन्द है) का सातवा गर्म तेरे पतिको जानसे मारेगा। रानीने घबड़ाकर सारा हाल कंसको सुनाया और उसने छल करके देवजी देवकीके सारे पुत्र मांग लिए एव बहिन-बहनोईको मथुरा में ही रस लिया । पुन होते गए और कंस उन्हें मारता गया । कृष्णका जन्म ऐसे छः पुत्र तो मर चुके श्रव श्री कृष्णका जन्मसमय श्राया कंसकेर हुए आरक्षक चारों तरफ सजगता से चौकी लगाने लगे, किन्तु मानवश नक्की नींद था गई। जन्म होते ही Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रसङ्ग दसवां २७ रानी के आग्रहसे पुत्रको लेकर महाराज वसुदेव चले और यमुना पार करके नन्दरानी यशोदाको वह पुत्ररत्न सौंप दिया एवं उसके बदलेमे उसकी नवजात-पुत्रीको लेकर लौट आए । छिननाशिका पहरेदार जागे और कन्याको लेकर कंसके पास आए। देखते ही वह चौंककर कहने लगा, क्या यह बालिका मुझे मारेगी? नहीं! नहीं! कभी नहीं मार सकती। यू मन ही मन समाधान करके उसे छिन्ननाशिका बनाकर वापस लौटा दिया। इधर गोकुलमें श्री कृष्ण सानन्द बढ़ने लगे और एक ग्वालके वेपमें ग्वालवालोंके साथ बचपन विताने लगे। उनका नाश करनेके लिए शकुनि, पूतना आदि अनेक शत्रु वहां आए, लेकिन सारे पराजित हुए। शत्रुओंका भेद पाकर कृष्णके बड़े माई बलभद्रजी गोकुलमे रहकर उनकी रक्षा करने लगे और उन्हें पढ़ाने भी लगे। देवकीके घर कंस एक दिन राजा कंस कार्यवश देवकीके घर आया। वहां वह छिन्ननाशिका नजर चढ़ी। तुरन्त ही उसे मुनिकी कही हुई बात याद आ गई एवं उसका दिल धड़कने लगा। घर आकर ज्योतिपीसे पूछा कि भाई ! क्या पड्यन्त्र है ? तुम अपने ज्ञानसे बतलाओ! क्या मेरा शत्रु जीवित है ? तथा अगर है, तो मैं उसे कैसे पहचान सकता हूँ ? ज्योतिषीने कहा-जो तेरे वृपभ, अश्व, हस्ति-युगल, खर, मेप और मल्ल-युगलको मारेगा एवं कालिय-नाग Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन का दमन करेगा, वही तेरा हन्ना होगा। वह जीवित है और मारनेसे भर भी नहीं सकता। कंस घबराकर वृषभ, अश्व आदि भेजता गया और कृष्ण उन्हें मारते गये। पाखिर उसने मल्लयुद्ध रवाया। समाचार सुनकर ग्वालबालोंके साथ कृष्ण-बलभद्रभी यहां पाए और बात ही बातमें दोनों मल्लोको दोनों भाइयोंने मार डाला । यह धमनान देवकर कंसने चिल्लाकर कहा-अरे सुभटों पकड़ो! पकड़ो! ये ही मेरे दुश्मन है। बस, पापी चिल्ला ही रहा था कि कृष्णन दौडकर उसको भी पकड़ लिया और पृथ्वी पर पन्छादकर यमके द्वार भेज दिया। फिर कंसके पिता राजा अनती (जो फंसने कैद कर रखाथा) मुक्त बनाकर मथुराका राज्य दिया एवं उनकी सुपुत्री सत्यभामासे विवाह करके वे सपरिवार गरि पा गये । इस समय बादय हर्पले फूले नहीं समा रहे थे। फरियाद घर कंतकी महारानी रोती-पीटती अपने पिताके पास गई और उसने कृष्ण के द्वारा सके मारे जानेकी बात कही। वान नुनते ही राजा सासने पैर का बदला लेने के लिए अपने पुत्र कापामारको मन्त्र भेजा। वह मौरिपुर श्राया तो यादः यता नहीं मिने। पूछने पर पता लगा कि वे महाराज जरासन्धन माध वैमनस्य होने की वजह से शहर छोड़कर सौराष्ट्रकी तरफ भाग गये। ग. कालियकुमार उनके पीछे-पीछ हो गया जाते-जाने बदन का अनर रह गया, तब वादोंकी कुलदेवी भिम चिता बनाकर मालियामारने कहा कि यादव र भयर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्रसङ्ग दसवां जलकर पाताल में चले गये। मैं तो उन्हें पातालसे भी निकालकर ले आऊगा ऐसे कहकर वह कृष्णकी चितामें घुसा और देवीने उसे भस्मकर दिया । द्वारका पुरीमें कृष्ण यादव सानन्द सौराष्ट्र पहुंच गये। वहां श्री कृष्ण के पुण्यों द्वारा इन्द्रके हुक्मसे वैश्रवरण देवताने प्रत्यक्ष स्वर्ग जैसी द्वारकानगरी वसाई और उसमें श्री कृष्ण राज्य करने लगे । उनके समुद्रविजय आदि नौ ताये थे । श्री वासुदेवजी पिता थे । भगवान् अरिष्टनेमि आदि अनेक तायेके पुत्र भाई थे । श्री बलभद्र आदि अनेक विमातृज भाई थे । सत्यभामा, रुक्मिणी आदि सोलह हज़ार रानियां थीं । प्रद्युम्न आदि अनेक पुत्र थे । कुन्ती - माद्री दो पुत्राएं थी, उनमें कुन्तीके पुत्र महारथी पाण्डव थे, जिनके लिए महाभारतमे उन्होंने खुद रथ चलाया था । माद्रीके पुत्र महाराज शिशुपाल थे, जिनको जरासन्धके युद्ध में उन्होंने अपने हाथोंसे मारा था । उनके परिवारका पूरा वर्णन करना बहुत मुश्किल है I 1 जरासन्धबध कृष्णादि यादवोंको जरासन्ध अबतक मृतक ही मानता था, किन्तु व्यापारियों द्वारा जीवित सुनकर समुद्रविजयसे दूतके साथ कहलवाया- या तो राम-कृष्णको हमें दे दो या लड़ने आ जाओ । समाचार सुनते ही राम कृष्णको आगे करके क्रुद्ध यादव युद्धार्थ रवाना हो गये । भीपण संग्राम हुआ, श्री कृष्णके हाथसे जरासन्ध Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन मारा गया और देवों मनुष्योंने मिलकर राम-कृष्णको बिसंडाधीश नौवें बतदेव-वासुदेव घोपित किया एवं सोलह हजार राजा और बारह हजार देवता उनकी सहर्ष सेवा करने लगे। श्री कृष्णने कुमार-अरिष्टनेमिका विवाह करने के लिए काफी धूम-धाम की, लेकिन नहीं हो सका। उन्होंने दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया और बाईसवें तीर्थकर वनकर दुनियां के कल्याणार्थ गांवों-नगरोंमें बिहरण किया। श्री कृष्ण उनके परम श्रद्धालु भक्त थे। एकदा प्रभु द्वारकामे पधारे, कृष्ण दर्शानार्थ गये और वाणी सुनकर पलने लगे-नाथ ! इस देव-निर्मित द्वारकापुरीका क्या होगा और मेरी मृत्यु किस तरह होगी? भगवान्ने फरमाया-कृष्ण ! नदिरापानके दोपसे द्वेमापन-ऋषि द्वारा इसका नाश होगा तथा विमाज भाई जराकुमारके हाथसे तुम्हारी मृत्यु होगी। मदिराका बहिष्कार प्रभुकी बात सुनकर कृष्णने प्रलयंकारिणी मदिराफे उत्सा. दन पर पूरा-पूरा प्रतिबन्ध लगाया और जो थी उसे जंगलमै दुलवाकर नगरमे उद्घोपणा करवा दी कि कोई मदिरापान मत परी और त्याग वैराग्य एघ तपस्या में लीन बनकर श्रात्मकल्याण करो। विनाश बहन दी जमीन है, जिम किसीको भी संयम लेना होपनी ली। पिछली चिन्ता मत करो। मैं सबकी सम्मान कर लगा। इन उद्योपणाने नगरम बहुन त्याग-राग्य बढ़ा। ना तो नर नारियौन मनुके पास दीक्षा स्वीकार की। (कृष्णकी मानामा रनिनशी आदि महारानियां पुत्र एवं पारिवारिक Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग दसवां ३१ जन भी शामिल थे।) कृष्णने इस समय धर्मदलालीका वड़ा भारी लाभ उठाया। भवितव्यता नहीं टलती एक दिन यादवकुमार क्रीड़ा करने बनमें गये और मदिरा पीकर उन्मत्त हो गये। शहरमे आते समय द्वौपायन-ऋषिको तपस्या करते देख कर बोले-अरे मारो-मारो! यही है अपने शहरका नाश करनेवाला । वस, फौरन धक्काधूम करने लगे और ऋपिको नीचे पटककर कांटोंमे खूब घसीटा एव अनेक दुर्वचन सुनाए । क्रुद्ध होकर ऋषिने द्वारकादहन का संकल्प कर लिया। पता पाकर कृष्ण-बलमद्रने आकर वहुत अनुनय-विनय की। ऋपिने आखिर मात्र उन दोनों भाईयोंको छोड़नेका वचन दिया और वे रोते-रोते हार कर घर आ गए। द्वारकादहन इधर द्वैपायन-ऋषि प्राणत्याग कर अग्निकुमार देवता बना। ज्ञानसे पूर्ववर का स्मरण करके द्वारकाको भस्म करने आया, किन्तु आयंबिल-उपवासादि तपस्याके प्रभाव से उसका बल न चला। छिद्र देखते-देखते बारह वर्प वीत गये । भावीवश लोगोंने * तपस्या को विल्कुल छोड़ दिया एव शत्रुदेवको मौका मिल गया। , वह मीषण आग बरसाने लगा, जिससे शहर स्वाहा होने लगा 1 और हा-हा की प्रवल ध्वनि पसरने लगी। उस समय कोई के किसीकी रक्षा करने में समर्थ नहीं था। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जन-जीवन - माता-पिता भी न बचे अपने माता-पिता (रोहिणी, देवकी और यमुदेव) को बचाने) लिए रयमे बिठाकर हरि-हलधर ज्यों ही दरवाजे के नीचे पाए: देवताने उन्हें वहीं रोक दिया और दरवाजा गिराकर माता-पिताको मार दिया। तीनों ही उत्तम जीव अनशन करके स्वर्गमें गये। रोहिणी-देवकी आगामी चौबीसी मे तीर्थकर होंगी। जो दिव्य नगरी इन्द्र के हुक्मसे वैश्रवणदेवताने वसाई थी, माधीवश एक तुच्छ देवता उमको भस्म कर रहा है और कृष्णबलभद्र देग्य देख कर रोरहे हैं। पर कुछ नहीं कर सकते, इसी लिए तो कहा है विचित्रा कनया गति ! पाण्डवमधुराकी तरफ़ 'अब क्या करना ? कहां जाना? कुछ भी समझमे नहीं याता । 'प्रापिर दोनों भाइयोंने पाण्डवमथुराकी तरफ प्रस्थान किया, रास्तेमे भूप लगी। राम हलकल्प पुरमे गये (जहां दुर्योधन का पुत्र राजा था) और हलवाई के यहांसे अपनी नामाशित मुद्रिका देकर एड न्याना परीदा। रामका नाम देखकर उसने राजाको मार दी। राजा सेना लेकर पाया । दरवाजे बन्द कर दिए एवं बलपहले रोक लिया। पना पाते ही कृष्णाने लात मारकर दरवाजे नौर दिए और माईको हुदा लिया। फिर पाना खाकर मारी अनमें प्राण । मृगको प्यास लगी। राम पानी लेने गगे, लेकिन उनले भावी पानी न मिजा! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग दसवां ३३ तीर लग गया रहे थे । कृष्ण वृक्ष के नीचे पैर के ऊपर पैर रखकर सो अचानक तीर लगा और वे चौंककर बोले- कौन है ? देखा तो जिसने भाईकी रक्षा के लिए बनवास लिया था वही भाई जराकुमार सामने खड़ा-खड़ा रो रहा है और माफी मांग रहा है । कृष्णने उसको सान्त्वना देकर पाण्डवोंके पास भेज दिया । अब जो तीर लगा था उससे भयंकर पीड़ा होने लगी एवं उसी कारण से श्रीहरिके प्राण छूट गये । अजब है कर्मोंका खेल, जिनके आगे देवता खड़े रहते थे, उनको अन्त समय पीनेको पानी तक नहीं मिला । रामकी दीक्षा कहींसे खोजकर श्री बलभद्र पानी लेकर आए, लेकिन आगे दीपक बुक चुका था । काफी आवाजें देने पर भी कृष्ण' न बोले । फिर भी वे मोहवश कुछ नहीं समझे और छः महीनों तक उनको उठाए फिरते रहे। आखिर देवोंने समझाया, तब शरीरका संस्कार किया और दीक्षा लेकर वनमे ध्यान करने लगे । जब कभी वहां भिक्षा मिलती तो ले लेते अन्यथा भूखे ही रहते, लेकिन शहर में न जानेका संकल्प कर लिया था। वहां उनको जातिस्मरणज्ञानवाला एक हिरण मिल गया था। वह भिक्षाकी दलाली करता रहता था। तीनों की सद्गति एक दिन एक बढ़ईके रोटियां आई थीं। मृगके साथ मुनि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन वहां गये गर्व तक्षक उनको नप रोटियां देने लगा। मुनि ले रहे. हैं, मुधार दे रहा है और हिरन उसकी प्रशंसा कर रहा है कि धन्य है उस दाताको, जो ऐसे मुनिको शुद्ध भिक्षा दे रहा है। मैं मी यदि मनुष्य होता तो दान देकर अपनेको कृतार्थ करता। ऐसे सोच ही रहा था कि हवाका एक जोरदार झोंका आया, उससे वृक्षकी एक डाली टूट कर उन तीनों पर गिरी और सद्भावनामें मरकर तीनों ही बालोकमें महर्धिक देवता हो गये। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग ग्यारहवां धधकते-अङ्गारे धन्य हैं गजसुकुमाल मुनि, जिन्होंने दहदहाते-अङ्गारे डाल देने पर भी अपना सिर नहीं हिलाया और मुंहसे आह तक नहीं की। देखिए जरा-सा क्षमाके आदर्शमें अपना मुंह । राजमाता देवकीके घर एक दिन भिक्षार्थ दो मुनि आए । देवकीने भक्तिपूर्वक उन्हें केसरियामोदक बहिराये। थोड़ी देर बाद मुनि फिर आए, एवं सहर्ष लड्डु देकर उनका सम्मान किया। लेकिन तीसरी वार आने पर उससे रहा नहीं गया और लड़ देकर ऐसे कहने लगी कि मुझे खेद है । जो मेरे शहर में मुनियोंको पूरी भिक्षा नहीं मिलती ! अन्यथा एक ही घरमे तीसरी बार आनेका कष्ट आपको क्यों करना पड़ता? मुनि बोले-वहिन ! हमतो पहली बार ही आए हैं, किन्तु समान रूप देखकर तू हमें पहचान नहीं सकी, ऐसा प्रतीत होता है । हम छहों भाई भहिलपुरनिवासी नागसेठ एवं सुलसा सेठानीके पुत्र हैं। विवाहके बाद नेमिप्रभुकी वाणी सुनकर हम साधु बन गये और छठ-छठ तपस्या करते हुए प्रभुके साथ विचर रहे हैं। मुनिकी बात सुननेसे देवकीको कंस द्वारा मारे , गये अपने छहों पुत्र याद आ गए और वह फौरन भगवान्के पास जाकर अपने मृत-पुत्रोंके विपयमें पूछने लगी। प्रभुने कहा-ये छहों पुत्र तेरे ही है। कंसके मार देने पर भी जीवित रह गये। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन देवताने उनको मृतवत्मा मुलसाके यहां रख दिया था और मुलसाके मृतपुत्र तेरे पास रख दिए थे । अतः कंसने जो मारे थे, वे पहलेसे मरे हुए ही थे। देवकीके मनमे अव तो हर्पका पार ही न रहा। पुनोंके दर्शन कि, उस समय उसके स्तनोंम से दुधकी धारा निकल पड़ी। चिन्तातुर देवकी दर्शन करके देवकी घर तो या गई, लेकिन चित्तमें चैन । नहीं रहा । पुत्रोंकी वाल्यलीला देखने के लिए उसका दिल तदफने लगा एवं यह चिन्ताके समुद्र में दुबकियों लगाने लगी। श्रीकृष्ण दर्शनार्थ आए और चिन्ताका कारण पूदने लगे। तब सारी बात सुनाकर माताने कहा-वत्स ! कुतियों, चिल्लियां और चिड़ियां भी अपने बच्चोंका लाद-प्यार करती हैं, किन्तु मैं तो उनसे भी निम्न श्रेणी में हूँ. जो सात-सात पुत्रोंको जन्म देकर मी उनकी पाल्बलीला नहीं देख सकी। धिक्कार है मेरे नात-जीवनको । बेटा हुन्बसे कलेजा फटा जा रहा है, पर क्या फर ! फाँके मागे कोई जोर नहीं चलता! देवाराधन श्रीमाने मानाको सान्चना दी और तेला करके देवता. का स्मरण किया। यह प्रकट हुश्रा। श्रीकृष्णने लोटे माईकी नाचनाही, नव देवताने करा- कि माई तो हो जाएगा, पर परमें नहीं रहेगा से कह कर देवमा अन्नधान होगया और श्रीकरण ने सुगमवर सुनाकर माता को सन्तुष्ट किया। कुछ समयके बाद Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग ग्यारहवां देवकीके उदरसे सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। महोत्सव करके गजसुकुमाल नाम रखा। माता उसको लाड़ लड़ा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करने लगी। कुमार पढ़-लिखकर क्रमशः यौवनमें आए । श्रीकृष्ण उनके लिए सुन्दर कन्याएँ इकट्ठी करने लगे एवं विवाहकी तैयारियां होने लगीं। इधर अचानक भगवान् अरिष्टनेमिका पदार्पण हुआ। कृष्ण दर्शनार्थ गये। लघुभ्राता भी साथ हो गये । हरिने देव वाणीका स्मरण करके उन्हें रोकना तो चाहा, लेकिन वे नहीं रुके और प्रभुके समवसरणमें उपस्थित हो गये। वैराग्य प्रभुने ज्ञानका ऐसा मेघ बरसाया, जिससे गजसुकुमाल तो संसारसे उद्विग्न होकर दीक्षा लेनेको तैयार ही हो गये । दीक्षाकी बात सुनकर यादव-परिवार में कोलाहल मच गया। माता वेहोश हो गई। श्रीकृष्णने बहुत-बहुत कहा, किन्तु कुमार तो टससेमस भी नहीं हुए। आखिर माता देवकीने आज्ञा दी और बड़ी धूमधामसे गजसुकुमालने नेमि प्रभुके पास दीक्षा स्वीकार की। श्मशानमें ध्यान दीक्षा लेते ही गजमुनिने प्रभुसे मुक्तिका सीधेसे सीधा रास्ता पूछा, तव प्रभुने श्मशानमें ध्यान करनेके लिए कहा । एवमस्तु कहकर मुनि उसी वक्त श्मशानमें जाकर आत्मध्यानमें रमण करने लगे। संध्याके समय सोमिल ब्राह्मण (जिसकी कन्या इनके विवाहार्थ रखी हुई थी) उधरसे आ निकला। मुनिको Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन-जीवन देखते ही वह बोधसे लाल हो गया। लाल भी ऽनना हुमा कि मुनि मिर पर निट्टीकी पाल बांध कर धगधगते-अशारे डाल दिए । विचढ़ीकी तरह मिर सीझने लगा गर्व घोर वेदना होने लगी, किन्तु मुनिने मिरको हिलाया तक नहीं। वे परम पवित्र शुक्ल यानमे लीन हो गये। बस, निर फटने के साथ ही कांकि वन्धन भी हद गये और नमाके आदर्श गजमुनि अजर-अमर एवं अविचल मोक्षमे पधार गये। AL Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1441 प्रसङ्ग बारहवां लड्डुओं के साथ कर्मोका चूरन हंसते-हंसते वेपरवाहीसे कर्मोका कर्ज कर तो हरएक लेते हैं, लेकिन उसको सहर्ष चुकानेवाले साहूकार, तो ढढणमुनि जैसे कोई एक ही होंगे। अजब अभिग्रह - महाराज कृष्णके ढढणा नामकी एक रानी थी और उसके पुत्र थे श्री ढढणकुमार । भगवान् अरिष्टनेमिका उपदेश सुनकर उन्होंने दीक्षा ले ली और ऐसा विचित्र-अभिग्रह किया कि मैं दूसरोंका लाया हुआ आहार नहीं करूँगा और मेरा लाया हुआ मी मेरे लिए वही भोज्य होगा, जो मेरी लब्धिसे मिलेगा। ढंढणमुनि भगवान के साथ ग्रामों-नगरोंमें विचरते और प्रतिदिन गोचरी जाते, लेकिन शुद्ध-आहारका संयोग नहीं मिलता । कहीं दरवाजा बन्द मिलता, तो कहीं रसोई बन्द मिलती। कहीं रसोई बनी हुई नहीं मिलती, तो कहीं रसोई उठी हुई मिलती। कहीं स्त्रियोंके सिर पर पानीका घड़ा मिलता, तो कहीं कोई स्त्री सब्जी बनाती हुई मिलती। कोई बच्चोंको स्तन्य पिलाती मिलती, तो कोई वच्चोंको नहलाती मिलती तथा कोई रोटी देते समय फूंक मार देती, तो किसीके सचित्तका संघट्टा हो जाता। इस प्रकार किसी न किसी तरह ढंढणमुनिको भिक्षा + मिलनेमें अड़चन लग ही जाती। फिर भी मुनिके चेहरे पर उदासीनता या खिन्नताका निशान तक नहीं मिलता एवं वे हर समय प्रसन्नवदन ही दिखाई देते थे। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीयन श्री हरिका सवाल एकदा अरिष्टनेमिमगवान् द्वारका पाए, श्री हरि दर्श नार्थ गगे और वाणी सुनकर पूछा कि अठारह हजार साधु-प्रोंमें सर्वोत्कृष्ट कौन है। प्रभु बोले-ठंढणमुनि सर्वोत्कृष्ट है । छ: महीनोंसे उसने पानी तक नहीं पीया और आज उमको केवलज्ञान होनेवाला है। यह तुझे जाते समय रास्तेमें ही मिल जायगा। वस, महाराज कम्ण चले एवं मिक्षार्थ फिरते हुए ढंढणमुनि उन्हें मिले । कृष्णने सवारी छोड़कर उन्हें सविधि वन्दना की। यह देखकर एक सेठने उनको बुलाकर मिक्षामें लइ, दिए और मुनि लेकर प्रभुके पास भाग। प्रभु बोले-वत्स ! ये लद कृष्णकी लब्धिके है क्योंकि कृमाको बन्दना करते देखकर ही सेठने तुझे दिए थे, इसलिए तेरे अमोय हैं। मुनिने पूछा-प्रमो! मैने ऐसे क्या कर्म किए, थे. जो मुझे शुद्धयाहार नहीं मिलता ? प्रभुने कहा-तू पिछले जन्ममें एक बना जमींदार था । तेरे पांच सौ हल और हजार चल थे । एक दिन सानेका समय होने पर भी तूने उन्हें नहीं लोदा अतः उनक भोजनका पिच्छेद होनेसे तेरे अन्तरायकर्म बंध गया। कम समय तमे वही कम फल दिपला रहा है। प्रमुफी आमा लेकर मुनि कही ईटोंक मटेंमें लद परटने गए। और लक्षुओंको चरने-चूरते शुक्ल यानसे उन्होंने कर्मोको मी घर दिया एवं केवलान पासर जन्म-मरणासे मुल हो गये। धन्य उनले धेको शोर्यको और दानतिजत्वको । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 'प्रसङ्ग तेरहवां कौरव-पाण्डव - सभी जानते हैं कि जन्मधारीको एक दिन अवश्य मरना पड़ता है। यदि यह बात सही है, तो फिर न्यायमार्गको छोड़कर जुन्म क्यों किया जाता है ? किसीको धोखा क्यों दिया जाता है दूसरोंकी सम्पत्ति क्यों हड़पी जाती है। कोर्ट में झूठे केस क्यों चलाए जाते है ? क्या उक्त कार्य करनेवालोंने महाभारत नहीं पढ़ा ? अन्यायी दुर्योधनकी दुर्दशा नहीं सुनी? ' वे कौन थे ? हस्तिनापुर में महाराज शातनु राज्य करते थे। उनके दो रानियाँ थीं। एक गंगा थी जिसके पुत्र भीष्मपितामह थे और दूसरी नाविकपुत्री सत्यवती थी, उसके दो पुत्र थे- चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य । विचित्रवीर्यके तीन पुत्र हुए-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर । धृतराष्ट्र जन्मसे अन्धे थे। उनके गाधारी आदि आठ रानियां थीं और दुर्योधनादि सौ पुत्र थे (जो कौरव कहलाये) वथा एक दुःशला पुत्री थी जो राजा जयद्रथसे ब्याही थी। पाण्डु राजाके दो रानियां थीं । कुन्ती और शल्य राजाकी बहिन माद्री। कुन्तीके तीन पुत्र थे- युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ( कर्ण दुनियाकी दृष्टिसे कुमारावस्थामे पैदा हुआ था अतः उसे पेटीमें बन्द करके गंगामें बहा दिया था और अधिरथ नामके बदईने उसका Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन पालन किया था) तथा माद्रीके दो पुत्र थे- नकुल और सहदेव । पारके पुत्र होनेसे वे पांचों पाएडयके नामसे प्रसिद्ध हुए। चचपनसे ही पैर । कौरव-पाण्डव साथ ही रहते थे और बाल्यलीला करते थे। भीम विगेप बलवान होनेसे दुर्योधनके भाइयों को प्रेमवश बैल-कूदमे सूत्र ही पटकता-पछाड़ता था, किन्तु दुर्भावना नहीं थी। फिर भी दुर्योधन देव-देख कर जलता ही रहता था। सुक बड़े होने के बाद ये मय पाचार्ग एवं द्रोणाचार्ग के पास पढ़ने लगे। कर्ण भी वहीं या गया और दुर्योधनका मित्र वन कर पाएटयोंसे (न्वास करके अर्जुनसे) पूरी शत्रता रखने लगा। द्रोणाचार्यकी वर्ग तथा अर्जुन विशेष भक्ति करते थे, फिर भी उन्होंने अर्जुन से अधिा प्रसन्न होकर उसे अद्वितीय-बाणालि बनाया और राघावेध मियाया। . द्रोपदीका स्वयंवर पतराष्ट्र जन्मान्ध होनेसे महाराज पाएदु राज्य करने थे। पिल्यपुग्पति राजा द्र पदकी पुत्री द्रोपदीका स्वयंवर हुआ। अनेर गजे-महाराजे आए। अर्जुनने राधाव किया। एवं दोपदीने उसके गले में वरमाला पानाई। किन्तु वह पूर्वकुननिदानास पांचोक गम दीसने लगी। सर्वसम्मतिसे उन पांचोंक गय द्रोपदीका विवाद हुमा! परन्तर कल न हो इसलिए नारदः पाम पास्टवाने प्रनिता कर ली कि द्रोपदीप महलमें एक होने दूसरा नहीं जाएगा। यदि कोई भूलसे चला जाएगा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेरहवां तो उसे १२ वर्ष तक वनवास भुगतना पड़ेगा । . एक दिन अर्जु-नसे भूल हो गई और वह १२ वर्षके लिए वनमें गया । वहां उसने अनेक विद्याऍ प्राप्त कीं एवं द्वारका जाकर कृष्णकी बहिन सुभद्रासे विवाह किया। सुभद्राका पुत्र A वीर अभिमन्यु हुआ । ४३ युधिष्ठिरको राजगद्दी T वनवास भोगकर अर्जुन घर आया । महाराज - पाण्डुने योग्य समझ कर युधिष्ठिरको राज्य दिया । अवसरज्ञ - युधिष्ठिरने साई दुर्योधनको इन्द्रप्रस्थका - राज्य देकर सन्तुष्ट किया । भीमादि चारों माई दिग्विजयार्थ चारों दिशाओं में गए और अनेक नरेश उनके आज्ञाकारी बने । कलहका प्रारम्भ द्रोपदीके पांच पुत्र हुए। सुभद्राकी कुक्षीसे अभिमन्युने जन्म लिया | उसके जन्मोत्सव पर अद्भुत सभामण्डप बनाया गया और अनेक नरेश बुलाए गए । पाण्डवोंकी सम्पति देखकर दुर्योधन जलने लगा तथा सभा देखते समय द्रौपदीके द्वारा हास्य करने पर तो वह आगबबूला ही हो गया । पाण्डवोंका पतन कैसे हो ? इस विपयमें मामा शकुनिसे सलाह करके धृतराष्ट्रादिकके निपेध करने पर भी उसने एक दिव्यसमा बनाकर सपरिवार धर्मपुत्रको बुलाया । उनके साथ बात ही वातमें जुआ खेलना शुरू कर दिया। शकुनिके पास दिव्य-पासे थे अत युधिष्टिर हारते गए और दुर्योधन जीतता गया । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन द्रोपदीको भी दावमें खजाना, गांव, नगर, भाई, द्रौपदी एवं स्वयंको भी उन्होंने पासिर दावमें लगा दिया और वे हार गए। दुर्योधनने द्रोपदीको राजसभामें नग्न करना चाहा, किन्तु उसके शीलके वलसे सादी से माड़ी निकलती ही गई। आखिर भीष्मपिता-- मह 'प्रादि वृद्धौने पापीको रोका और बारा वर्ष तक पाएडवोंको चनवास जानेका निर्णय दिया वे बुदको भी हार गए। अतः तेरहवें वर्ष कहीं छिपकर रहना होगा- यह आदेश दुर्योधनने विशेषरूपसे दिया और पाएडयोंने माना। साथ-साथ यह भी वय हो गया था कि वनवासके बाद राप्य यापम लौटा दिया जाएगा। पाएडव वनवासमें कर्मकी अजय महिमा है, जिमने धर्मपुत्र-जैसे धर्मिष्टोका भी घरवार छुड़वा दिया। पांचों पाएटव, पुन्ती और द्रोपदी यनमें गए । द्रौपदीफ पुत्रोंको उनका मामा टान ले गया एवं नुमद्रा और अभिमन्युरो श्रीकृषण ले गए। बनवासी बनाकर भी दुर्योधन सन्तुष्ट न हुश्रा। वारणायतनगररथ लाक्षागृह में रम फर इन्हें भम्म करना चाहा, किन्तु चाचा विदुरकी कृपासे : मानों जीवित बच गए और उनके बदले दूसरे सात जीव मारे गये। बनमें फिरतं ममय मीमने यि एवं बरु राक्षसको मारा माविमा राप्मीसे विचार किया, उसका पुत्र वीर धोमध Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेरहवां दुर्योधनकी दुष्टता - लाक्षागृहसे बचे सुनकर दुर्योधन गोकुल देखनेके बहाने फौज लेकर पाण्डवोंको मारने वनमें गया, किन्तु वहाँ खुद ही पकड़ा गया और फिर उसे वीर अर्जुनने छुड़ाया। पापीने मौका पाकर कृत्या राक्षसीको भिजवाया, लेकिन पुण्योंसे पाण्डव बच गए, प्रत्युत वह भेजनेवाले सुरोचन पुरोहितको खा गई। ऐसे ही अनेकों कष्टोंका सामना करते-करते बारह वर्ष बीत गए एवं अब वे गुप्तरूपसे विराटनगरमें तेरहवां वर्ष व्यतीत करने लगे। धर्मपुत्र पुरोहित थे, भीम रसोईदार थे, अर्जुन बृहन्नट ( नपुंसक) बनकर राजकन्या उत्तराको पढ़ाते थे। नकुल-सहदेव अश्वरक्षक एव गोरक्षकके रूपमें काम करते थे। द्रौपदी दासीके रूपमें महारानीके पास रहती थी एवं उसका नाम सैरन्ध्री था।. ' कीचक और मल्लका बध , . महारानीका भाई राजा कीचक द्रौपदीसे कुछ छेड़-छाड़ करने लगा। मौका पाकर द्रौपदीके रूपसे भीमने उसको पृथ्वी पर पछाड़ कर मार दिया। इधर पाण्डवोंका पता लगाने एक मल्ल भेजा गया । उसको कुश्ती करके भीमने खत्म कर दिया। फिर दुर्योधनने गौओंकी चोरी की, उसमें भी पाण्डवों द्वारा कौरवोंकी काफी मरम्मत हुई और उन्हें शर्मिंदा होकर भागना पड़ा। श्रीकृष्ण दूतके रूपमें तेरहवां वर्ष बीतने पर पाण्डव प्रकट हो गए। कृष्ण-द्रपद Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . जैन-जीवन आदि वजन मिलने प्राए । राजयुमारी उत्तरासे वीर अभिमन्युका विवाह किया गया पीर मानन्द-मंगल मनाए गए। फिर श्रीकपाक 'यामहले पाएटव द्वारका बाप एव पर्जुनके सिवा चारों भाइयोंको दमानि चार कन्याएं दीं। परामर्श करके श्रीहरिने दुर्योधनफे पास दूत भेजकर कहलवाया कि तेरे कथनानुलार पाण्टयोन नेरह वर्ष व्यतीत कर दिए हैं, अब इनका राज्य लौटा कर अपने बचनका पालन पर । दुर्गधिन नहीं माना, तब भीरि खुद ही दुत बन कर उसे समझाने गए और यहां तक का दिया कि पारपाको मात्र पांच गांव ही दे दे। किन्तु अभिमानी बोलाको नाम डिसी जो भी लो. निनानी दूगा! रुष्टमान श्रीहरि कृष्ण कष्ट होकर चलने लगे तब भीष्मादि युद्धोंने पैर परद कर उनने किमी मी पचाने न लगनेका अनुरोध किया। करगने मान लिया और कहा कि मैं एनमें शस्त्र गारा ही pr जाते समय उन्होंने नर्गको अन्दरका भेद बता कर फूट दालनेकी काफी कोशिश की, लेकिन बह तो दुर्योधनके लिए पहले ही विक चुरा था। कृष्ण द्वारका पाप और उनके पथनानुसार पारडर मान प्रक्षोहिणी मेना लेकर मुररमें पारने नयाद्रपदपुत्र को सेनापति बना कर कौरवोंकी प्रतीजा करने लगे। पर मीट मेनापतित्वम द्रोण, कृप, कर्ण, शल्य, मग. दन प्रादि वीसने परिन ग्यारह-पनी हिगी दलयामः दुर्योधन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेरहवां एई भी उपस्थित हुआ । अपने पितामह, गुरु, मामा एवं भाईयों को देखकर अर्जुन रथके पीछे आ बैठा एवं श्रीकृष्ण से कहने लगा कि मै तो नहीं लड़ेगा । इस तुच्छ पृथ्वी के टुकड़ेके लिए गोत्रहत्या करते मेरा दिल कांप रहा है ।' श्री हरिकी प्रेरणा क्षत्रियधर्मके अनुसार अन्यायीको मारना कोई दोष नहीं, ऐसे कह कर श्रीकृष्णने अर्जुन को उत्साहित किया एवं कौरवोंपाण्डवोंका युद्ध शुरू हुआ। नौ दिन तक भीष्म पितामहने पाण्डव सेनाको खूब मारा। तब कृष्णकी सलाह से शिखण्डीको आगे करके दसवें दिन अर्जुनने उनको गिरा दिया । ग्यारहवे दिन द्रोणाचार्य सेनापति बनकर पाण्डवोंसे खूब लड़े । बारहवे दिन अर्जुन ससप्तकों त्रिगत देशके सुशर्मा आदि वीरोंसे लड़ने गया, इधर राजाभगदत्त पाण्डवोंमे घुसा और मारा गया । तेरहवे दिन गुरु द्रोणने चक्रव्यूह रचा, अभिमन्यु अनेक वीरोंके साथ उसमे प्रविष्ट हुआ। कर्ण, द्रौण, शल्य, कृप, अश्वत्थामा दिने उस चीरको बुरी तरहसें घेर लिया एवं जयंद्रथने उसका सिर काट लिया। चौदहवें दिन क्रुद्ध अर्जुनने जयद्रथको मार दिया, तब न्यायका भंग करके द्रोणने रातको अचानक हमला किया | उसमे कर्णने शक्तिसे घटोत्कचंको मारा और द्रौणने विराट एवं द्र पदके प्राण लिए । , ** + -श्राखिरी चार दिन पन्द्रहवें दिन द्रोणको मरवाने के लिए श्री हरिकी सलाह से Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन धर्मपुत्र अयामा मृतः नरो वा कु जरो वा ऐसे असत्य बोला । पुत्र-पथ सुनकर द्रोणने शस्त्र फेंक दिए और मौका पाकर शीघ्र ही वृष्टद्युम्नने उन्हें मारकर बापका वैर ले लिया । सोलहवें दिन कर्णके सेनापतित्वमें दुःशासनको भीमने मारा । क्रोधारुण-कर्ण सत्रहवें दिन राजा शल्यको सारथी बना कर अर्जुनको मारने दौड़ा, किन्तु उसका रथ जमीनमें घुस गया । ज्योंही उसे वह निकालने लगा, अर्जुनने फौरन उसका सिर काट लिया । अठा रहवें दिन शल्यके सेनापतित्वमें दुर्योधन आदि लड़ने आए । धर्मपुत्रने शल्यको सहदेवने गत खेलानेवाले पापी - शकुनि को व मीमने दुर्योधनके अनेक माइयोंको मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार अपनी सेनाका संहार देखकर दुर्योधन भाग कर एक तालाय में घुस गया । भीम और दुर्योधनका गदायुद्ध पाएटव फौरन वहां पहुंचे और कुलवाती दुर्योधनको बाहर निकाल कर युद्धके लिए ललकारा। उसने भीमके साथ गदायुद्ध करना चाहा। दोनों वीर मिड़े और गदाएँ बिजलीकी तरह चमाने लगीं । यासिर कृष्णके संकेनसे भीमने जंघा पर TET मारकर करaratशको गिरा दिया। फिर भी क्रोध शान्त न होनेसे उसके सिरमें लातें मारने लगा । यह अनुचित कार्य होने गए श्रतः पाप्महत 1 मनाने गए एवं युद्ध भी गल हो गया। वर होनेके बाद दुर्योधन सेनामें लाया गया और उसको मृत - देवर पल श्री Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेरहवां प्राय देखकर सब रोने लगे। तब उसने कहा-हाय ! हाय ! पाण्डव जीते हैं और मैं मर गया । अगर उन्हें मरे देख लेता तो मेरे प्राण, खुशीसे निकल जाते। ऐसे सुनते ही अश्वत्थामा आदिने रातको अचानक हमला करके धृष्टद्य म्न एवं शिखण्डीको मारा तथा द्रौपदीके पांचों पुत्रों के सिर काटकर अपने स्वामीके आगे लाकर रक्खे । बच्चोंके सिर देखकर दुर्योधनने कहा-अरे मूर्यो । इन बच्चोंको मारनेसे क्या है ? मेरे दुश्मन पाँचों पाण्डव तो जीवित ही हैं । हाय ! हाय ! मेरी तकदीर ऐसी कहाँ ! जो मै ___ उन्हें मरे देखू, ऐसे दुनिमें मरकर पापी सप्तम नरकमे गया।' सात और तीन बचे ' .. अठारह दिनके युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना कटी। कहा जाता है कि पाण्डवपक्षके सात वचे श्रीकृष्ण, सात्यकि एवं पांचों पाण्डव तथा कौरव-पक्षीय तीन बचे-अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा । देखो एक दुष्ट दुर्योधनने सारे कुलका संहार कर दिया, इसीलिए तो कहा जाता है कि कुमाणस आया मला न जाया भला खैर ! जो कुछ होना था वह हो गया, किन्तु कहा यही गया कि पाण्डवोंकी जीत हुई और कौरवोंकी हार। - राज्याभिषेक और देशनिकाला श्रीकृष्णसहित विजयी-पाण्डव हस्तिनापुर आए । पिताजीके चरणोंमें सिर झुकाया। शुभ मुहूर्तमें धर्मपुत्रका पुनः राज्याभिषेक हुआ और वे सानन्द राज्य करने लगे। द्रौपदीका रुप सुनकर एकदा पद्मनाम राजाने देवता द्वारा उसे मंगवा पा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन लिया। पता पाकर पाएटयों सहित श्रीकृष्ण लवणसमुद्रको लांच कर पातयोगरा पहुंचे और नरसिंहस्प धारकर द्रौपदीको छुड़ा लाए । किन्तु हास्यके वशीभूत गंगानदीमें नौका न भेजनके कारण कृष्ण क्रुद्ध हो गए और पाएटवोंको देशनिकाला देकर अभिमन्युके पुत्र परीक्षितको हस्तिनापुरका राजा बना दिया। श्रीकरणके कथनानुसार दक्षिासमुद्रके किनारे पाण्डवमथुरा घसाकर बहो पाएट्य अपने दुःखके दिन व्यतीत करने लगे। नमयानन्तर द्रौपदीने एक पुत्र हुया जिसका पाण्डुसेन नाम रखा गया। दीक्षा और निर्वाण ___एक दिन अचानक जराकुमारने थायर द्वारकादहन एवं कृष्णमरणके समाचार सुनाए । श्रीहरि जैसे-महापुरुषका ऐसे मरण सुन कर पाएडवोंको वैराग्य हो गया और अपने पुत्र पासनको राज्य दे कर द्रौपदीमारित पोंचों भाइयोंने दीक्षा ले ली एवं कर्मोका नाश करनेके लिए मास-मामरसमण तपस्या करते हुए विचरने लगे। एकदा वे भगवान अरिष्ट नेमि दर्शनार्थ निमलाभल जा रहे थे। रास्ते में हस्तकल्पपुर श्राया। मुनि माससमगरा पारणा करने तैयार हुए ही थे, उनमें पता मिला कि भगवाननं अनशन फर लिया है। अब तो प्रभुके दर्शन करके ही पास म ऐमी प्रतिक्षा करके उन्होंने शीघ्र ही विहार कर दिया, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही भगवान मोज पधार चुके चे। दर्शन नमोनर कारण यपनी प्रतिमा अनुमार मुनियोंने Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेरहवां यावज्जीवनके लिये अनशन ले लिया। एक महीने का अनशन आया और अन्तमे केवलज्ञान पाकर पॉचों ही पाण्डव सिद्धगतिको प्राप्त हुए । इधर महासती द्रौपदी भी शुद्धसंयम पाल कर ब्रह्मदेवलोकमे गई। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग चौदहवां द्रौपदीके पाँच पति क्यों ? किसी जन्म में द्रौपदी नागश्री ब्राह्मणी थी। उसने धर्मरचि मुनिको कटुचे तुम्बेका शाक बहिराया एवं नरकमें गई। फिर संसारमे भ्रमण करती करती एकदा वह सेठकी पुत्री सुकुमालिस हुई। फिर भी पाप के उदयसे चिपकन्या थी अत. विवाह होने पर भी उसके शरीरका स्पर्श न कर सकनेके कारण पतिने उसे छोड़ दिया | पिताने एक भिखारीके साथ दुवारा भी शादी की, किन्तु उसके अग्निरूप शरीरसे डरकर वह भी भाग गया अतः सुकुमालिका चापके घर ही अपने दुसके दिन व्यतीत करने लगी । दीना और श्रातापना एक दिन सेठके यहाँ मिचार्थ साध्वियां श्रई । उसने अपना दुःख सुनाकर उनसे कोई पुरुषवशीकरण मन्त्र पुत्रा । सतियने ऐसे मन्त्र यतानेसे इन्कार कर दिया और उसे धर्मोप्रदेश सुनाया । तव दुःसकी भारी वैराग्य पाकर वह साम्बी बन गई एवं शहरके बाहर बागमें जाकर सूर्यके सामने प्रतापना लेने लगी। गुरुवानीने ऐसे खुले स्थान मे तपस्या करना अनुचित सरकार शफी मनाही की, लेकिन वह नहीं मानी । पांच पतिका निदान एक दिन जहाँ हत्या कर रही थी, एक वेश्या Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग चौदहवां आई । उसके साथ पॉच-भोगी पुरुष थे, जो उससे भोगकी प्रार्थना कर रहे थे। साध्वीकी दृष्टि उन पर पड़ी और दिलमें विचार हुआ कि इसके पीछे पॉच-पॉच पुरुष पागल हो रहे हैं और मेरे पास एक भिखारी भी नहीं ठहरता। अगर मेरी तपस्याका फल हो तो अगले जन्ममें मुझे भी पाच पति प्राप्त हों। भोगकी तीव्र अभिलापाके वश उसने यह निदान कर लिया। विराधक होकर भर गई एवं तपस्याके प्रभावसे दूसरे स्वर्गमे देवीं बनी। द्रुपद राजाके घर । सुकुमालिका स्वर्गसे च्यवकर द्रुपद राजाकी पुत्री द्रौपदी हुई। वर्ण काला था इससे वह कृष्णा भी कहलाई। इसका रूपलावण्य अद्भुत और आकर्षक था। यौवन आने पर स्वयंवर हुआ, अर्जुनने राधावेध किया एवं द्रौपदीने उसके गलेमे माला पहना दी। पहनाई तो थी एक अर्जुनके गले में, किन्तु दिव्य प्रमावसे पांचोंके गलेमें दीखने लगी । दर्शकोंने शोर किया तब आकाशवाणीने कहा- भवितव्यतावश इसके पॉच पति ही होंगे। इतनेमें आकाशमार्गसे एक मुनि आए । एवं कृष्णादिके पूछने पर उन्होंने पिछले जन्मका सारा हाल सुनाया और फिर सर्वसम्मतिसे पांचों पाण्डवोंके साथ द्रौपदीका विवाह हुआ । अस्तु । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पन्द्रहवां भगवान पाश्वनाथ थोड़ी-सी सेवा करनेवाले पर प्रेम और थोड़ा-सा कण्ट देनेवाले पर कैपका होना प्राणीमात्र लिए स्वामाविक-सा ही है। ऐसे आदर्शपुनप तो पार्श्वनाथ भगवान् जैसे कोई विरले ही मिलेंगे जिन्होंने प्राण बचानेवाले नागराज-धरणेन्द्रको 'पौर मरणान्तउपसर्ग करनेवाले फाठदेनको एक ही दृष्टिसे देसा। श्राजसे लग-मग उनत्तीस-मी वर्ष पूर्व तेईसये तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथने नाणारसी नगरीमेंराजा अश्वमेनकी महारानीश्री वानावाशी सुतिसे जन्म लिया था और उनका विवाह राजा प्रस मन्दिा सुपुत्री प्रभावतीने हुधा था। एक दिन हजारों नगर निवासियों को एक ही तरफ जाते देखफर उन्दोंने अपने सेयकसे उसका कारण पूछा। उसने कहा- कमठ नामका एक यदा मारी उपस्वी प्रागा है, यह शहरके बादर पंचाग्निसाधना कर रहा है-ये सब लोग उसीके दर्शनार्थ जा रहे हैं। श्री पार्वयुमार मी युल-एक मिनों, साथ वहां पधारे और उससी हिंसात्मक साधना दबकर बोल- अरे हिंसाप्रिय उपत्यी-काठ ! पर्मका मूल अरिमा और तू धर्मक नामसे महादिना कर रहा है। देव ! तेरे इगतपस्या साधनमृत लकडमें एक विशालकाय नाग-नागिन का जोड़ा चल रहा है, जिनका तुमे नोट-कई मयार एक गाग हो या और मरम उमा परन्न होना मागत है। JHM A RA - Mar - - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पन्द्रहवां पता तक नहीं है । प्रभुकी इस वाणीसे कमठ लाल होकर कहने लगा, राजकुमार ! चले जाओ चुप-चाप, बोलोगे तो ठीक नहीं होगा । मैं धर्मका मूल एवं फूल सब कुछ जानता हूं, मुझे शिक्षा देनेका कष्ट न करो। नाग-नागिनी का उद्धार बस, बात ही बातमें विवाद बढ़ गया और प्रभुने सहस्रों नगरनिवासियोंके सामने वह लकड़ा चिराया तो उसमेंसे तड़फते हुए नाग-नागिनी निकले। दयालु भगवान्ने उनका उद्धार करने के लिए श्री नमस्कार-महामन्त्र सुनाया एवं उन्होंने उसे श्रद्धापूर्वक सुन लिया । शुभ भावनासे मर कर वे दोनों नागकुमारोंके इन्द्रइन्द्राणी धरणेन्द्र एव पद्मावती बन गये।। इस अनूठे दृश्यने वातावरणको वदल डाला। तापसके अनन्यभक्त भी उसे ठग, धूर्त और पाषण्डी कहने लगे। प्रभुने मी मौका पा कर उपदेश दिया-जैसे धौला-धौला सारा दूध और पीला-पीला सारा सोना नहीं होता, वैसे ही साधुके वेष वाले सारे साधु नहीं होते । फिर अहिंसाधर्मका मर्म समझाते हुए उन्होंने कहा- जिस धार्मिकसाधनाके लिए किसी भी प्रकारकी हिंसा की जाती हो, वास्तवमें वह साधना धर्मसाधना ही नहीं है । हिंसात्मक-साधनामें धर्म माननेवाले अज्ञानी एवं अनार्य हैं। __ मगवानका यह अनमोल ज्ञान सुनकर लोग काफी कुछ समझे और तापसको धिक्कारते हुए अपने-अपने घर चले गये। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जन-जीवन फमठ शर्मिदा होकर वहां से चला गया, किन्तु उसको अपमानका दुःख इतना लगा कि या आमरण अनशन लेकर मरणको प्राप्त हो गया और तपस्या बलस मकुमार देवता - बन गया। पूर्वजन्मका स्मरण होते ही यह श्राग-बबूला होकर बेरका बदला लेने के लिए हरसमय बल-दिन देखने लगा। दीक्षा और उपसर्ग इधर प्रभु तीन वर्ष गृहस्थाश्रम भोगकर संयमी बने एवं तपन्या धन मे पधारे। मौका पाकर कमठ देवता पाया और भयंकर भूत-पिशाच श्रादिका रूप बनाकर उपमर्ग करने लगा। मरणान्त-उपमर्ग करने पर भी प्रभुने अपने ध्यानको नहीं होता, तय देवता और भी मन्द हुना तथा प्रलयका-मा मेघ निर्वित करके मूसलाधार पानी बरसाने लगा। पानीमें भगवानका शरीर प्रायः दूब चुका था। प्योंही पानी नाक तक पहुँचा, अघधितानसे जानकर शीघ्र ही गागरात भरणेन्द्र श्राकर अपने इष्ट देवको ऊँचा ठा लिया । पानी परसानेमें देवताने इद कर दी, फिर भी प्रभु तो उनके ऊँचे ही रहे। याचिर घरगेन्द्रका भेद पाकर कमट परराया एवं परनी मारी माया ममेट कर भगवान के चरणों में नमा मांगने लगा. लेकिन प्रमु तो अपने भ्यानमे लीन थे। उनके दित न तो कम प्रतिदप था, और न अपने परममा नागराज प्रति राग या. सदातिना विचित्र मा बा, ममताया Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पन्द्रहवां केवलज्ञान शुक्लध्यानसे घातिककर्मोंका नाश करके चौरासी दिनके । बाद प्रभुने केवलज्ञान पाया एव भाव-अरिहन्त वनकर चार तीर्थ • स्थापित किये । उनके शासनकालमे ‘सोलह हजार साधु हुए, अड़तीस हजार साध्वियों हुई, एक लाख चौंसठ हजार श्रावक हुए और तीन लाख उनचालीस हजार श्राविकाएँ हुई। प्रभु सत्तर वर्ष संयम पाल कर एक हजार मुनियोंके साथ सम्मेदशिखर पर्वत पर निर्वाणको प्राप्त हुए । पार्श्वनाथ प्रभुका स्मरण बहुत ही आनन्दकारी है, आचार्योंने इनके एकसे एक बढ़ते-चढ़ते अनेक स्तोत्र बनाए हैं, उनमें उपसर्गहर स्तोत्र एव कल्याणमन्दिर स्तोत्र बहुत ही प्रभावशाली है। ----- - - - - STA vt. .. P Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सोलहवां प्रदेशीके प्रश्न स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, म्यात्मा व परमात्माको माननेवाला प्रातिन होता है और न माननेवाला नास्तिक होता है। प्रदेश पनि राजनीतिकोंका सरदार था । उसके दिलमें दयाका निशान तक नहीं था और मनुष्यको मारना उसके लिए तिनका तोड़नेके समान था । चित्त नामका विमातृज भाई उसका मन्त्री था, जो वा मारी धर्मात्मा एवं श्रास्तिक था । सावत्थमें केशीस्वामी श्री roat कार्य राजमन्त्री गायत्री नगरी गया। वहां भगवान्के संतानिक-शिष्य श्रीस्वामी धर्मप्रचार कर रहे थे, जो चतुर्ज्ञानवारी थे । पता लगने पर चित्र- प्रधानने उनका उपदेश सुना और भावकके व्रत महण किए । मन्त्रीने देश जाते समय गुरुजीसे नगरी पधारनेकी प्रार्थना की। शेत लाभ समक कर केशीस्वामी वहां पधारे और राजाके वागम ठहरे। अवसर देखकर घोड़ोंकी परीक्षाके बहाने दीवान राजाकी यागने से आया । ये जड़-मूह - कौन हैं ? राजाने दूरसे गुनियो देखकर पूछा- भाई! ये जढ़-मूढमेरा नारा याग रोक लिया, अब मैं यहां अनेका-ये जेनी नाग नर आत्मा परमात्मा बने हैं। उनके मत जी और सूर्य कौन है? और 4 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सोलहवां - काया पृथक्-पृथक हैं। राजा मुनिके पास गया, किन्तु हाथ बिना जोड़े ही = आत्मा-विषयक प्रश्न करने लगा। मुनि बोले-राजन् । विनय बिना ज्ञान नहीं आता । तूने बाहर तो हमें जड़-मूद-मूर्ख कहा और यहां आकर असभ्यतासे प्रश्न पूछ रहा है अतः तू हमारी जकातका चोर है। विस्मित नरेशने पूछा-महाराज । आपको मेरे कहे हुए अपशब्दोंका पता कैसे चला ? मुनि बोले-मेरे पास चार ज्ञान हैं । राजा बहुत प्रभावित हुआ और मान गया कि ये सच्चे ज्ञानी हैं तथा इनका धर्म वास्तविक है, फिर भी जिज्ञासाके लिए - कई प्रश्न किए। = १. राजा- यदि नरक है, तो मेरा दादा बहुत पापी था। अतः अवश्य नरकमें गया होगा, अब वतलाइये, वह मुझे आकर क्यों नहीं कहता कि पोता ! धर्म कर ? गुरु- जैसे तेरी रानीसे व्यभिचार करनेवालेको स्वजनोंसे मिलनेके लिए तू थोड़ी भी छुट्टी नहीं देता, वैसे ही तेरे पापी दादेको यम यहां नहीं आने देते। २. राजा- मेरी दादी धर्मात्मा थी अतः स्वर्गमे गई होगी, वह तो आकर कह सकती है? ___ गुरु- मनुष्यलोककी दुर्गन्धिके कारण नहीं आती। _ ३. राजा-- मैने चोरको मारकर कोठीमें रखकर बन्द कर दिया। समयानन्तर देखा तो उसमें कीड़े पड़ गये। वे कहांसे घुसे, कोठीमें छिद्र तो हुए नहीं ? गुरु- लोहेमे अग्निकायके रूपी शरीर घुसने पर भी छिद्र नहीं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीन होते, जीय तो प्रस्पी होने है, फिर उनके घुसनेसे कोठीमे हित कै हाँगे! ५, रागा- मैन एक चोरको कोठीम बन्द कर दिया, समयानन्तर देवा तो मरा या मिला । अब कहिए जीव कहाँमे निकला रास्ता तो वन्द था। गुर- जैसे वन्द मकानम बजाए गये ढोलका शब्द बाहर निकलता है, वैसे ही समझ लो। ५. रागा-यापके हिसाबसे जीव सब बराबर है, तो अचान "यादमीफे समान चालक तीर क्यों नहीं चला मस्ता ? गुग-- बालको हाथ-परमादि शरीरके अवयव अपूर्ण है। क्या तुम नहीं जानते कि बागाविद्यामें निपुगा पुरप भी धनुपके उपकरण अपूर्ण होने पर तीर अच्छी तरह नहीं चला मकता । १. रा-- चुदा श्रादनी जवान जितना योगा क्यों नहीं उठा नाता? गर-- सरे, अवयव जीर्ण होगा, इसीलिए गया पुरानी कारमं बात भी पूरा बोका उठा सकता है! ७. ग- दिन मनजीवित घोरको तोला 'पीर मार का फिर सोला, किन्तु उसका योमा पूर्षयत, तर कहिये स्यों नहीं पटा? pr- आरके नगन्य शरीर निकलने पर भी रसद टोला Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सोलहवां '' बोझा प्राय नहीं घटता, तो फिर अरूपी एक जीव. . निकलने पर बोझा कैसे घट सकता है । ८. राजा- एक दिन मैंने काट-काट कर चोरके टुकड़े कर दिए, लेकिन निकलता जीव नज़र क्यों नहीं चढ़ा? ___गुरु- तू लकड़हारे जैसा मूर्ख है । अरुपी जीव इन चर्म चक्षुओंसे कैसे देखा जा सकता है ? ६. राजा- यदि सब जीव बरावर हैं तो शरीर छोटे-बड़े क्यों ? गुरु- दीपकके प्रकाशकी तरह जीवका भी संकोच एवं विकासका स्वभाव है। १०. राजा- महाराज ! आपकी बातें तो सच्ची हैं, किन्तु बाप दादोंका धर्म कैसे छोडू? गुरु- सच्चा धर्म समझकर भी अगर भूठको नहीं छोडेगा तो लोह्वनिएकी तरह रोना पडेगा। राजा बोला-गुरुदेव ! मै ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। सबके सामने आपको गुरु बनाऊँगा एवं धर्म धारण करूगा । राजा घर आया और दूसरे दिन रानी, पुत्र आदिको साथ लेकर उसने जैनधर्म स्वीकार किया एवं श्रावकके बारह व्रत ग्रहण किए। राज्यके चार भाग करके राजा छठ्ठ-छट्ठ तपस्या करने लगा। स्वार्थपूर्ति न होनेसे रानीने तेरहवें वेलेके पारनेमे उसे जहर दे दिया। पता लग जाने पर भी राजाने रानी पर बिल्कुल क्रोध नहीं किया और अनशन करके सूर्याम नामका महर्धिक देवता बना। फिर दर्शनार्थ भगवान् महावीरके पास आया एव उसने Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aytgan j जैन जीवन દર अदभुत नाटकका प्रदर्शन किया। गौतमस्वामीने यह पूर्वभवमे कौन था ? प्रभुसे पूला, तय प्रभुते फैशी और प्रदेशीका सारा विवरण सुनाया ( जो रायप्पणिय सूत्र में चरित है | ) सुर्याम देवता भवान्तर मा जन्म बतलाया कि लेकर नो जाएगा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सत्रहवां भगवान महावीर सच्चे वीर वही होते हैं, जो कष्टोंके समय भी औरोंका सहारा नही लेते। किसी कविने कहा भी है:जो तैराक हैं दरियाका किनारा नहीं लेते, जो मर्द हैं गैरोंका सहारा नहीं लेते । '. लेकिन ऐसे कहना जितना सरल है, काम पड़ने पर मज-बूती रखना उससे लाखों गुणा कठिन है। कण्टोंके समय किसीका सहारा न लेनेवाले वीरोंमें भगवान महावीर एक प्रमुख वीर थे । जैनजगतमें ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो उनका नाम नहीं जानता। इस अवसर्पिणीकालमे भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे। प्रभुने क्षत्रियकुण्डनगरमें चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको माता त्रिशलाकी कुक्षिसे जन्म लिया था। पिता सिद्धार्थ राजा थे, बडे भाई नन्दीवर्धन व बड़ी बहिन सुदर्शना थी । जबसे महावीर माता त्रिशलाके गर्भ में आए तमीसे राज्यमे अन्न-धन आदि हर एक वस्तु बढ़ने लगी, इसलिए पिताने अपने पुत्रका नाम श्रीवर्धमानकुमार रखा। जन्मसमय इन्द्रादि देवोंने भी परम्परागतरीतिके अनुसार प्रभुका जन्म-महोत्सव किया। 'बचपनमे आमलकी-क्रीडाके समय बल-परीक्षार्थ एक देवता अपनी पीठ पर बैठाकर प्रभुको आकाशमे ले गया, किन्तु मुक्का मारते ही रोता हुआ नीचे आ गया और क्षमा मांगकर वर्धमानको वीर नामसे सम्बोधित करने लगा। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन पदाकि समय उन्नने प्रभुसे व्याकरण-सम्बन्धी अनेक जटिल प्रश्न पूछे, उन्होंने इसी क्षण नरका समाधान कर दिया। का जाना है कि उन प्रश्नोंत्तरोंस एफ व्याकरण बन गया, जो नन्द्रमा नामले प्रसिद्ध है। गौवन आने पर प्रभुने मीरा नामकी राजकन्यासे विवाह किया। प्रियदरांना नामक एक पुत्री हुई, जिसका पाणिग्रहण जत्रियामार उमालिक सायाया। श्रीवर्धमानके माता-पिता मग. वान् पाश्र्वनाथ पावर गे, इसलिए प्रभु ज्ञान--(प्रायक) पुत्र भी फलाए । उन्होंने बहुत वर्षों तक प्रावधर्म पाला और 'अन्त में अनशन पर बारह स्वर्गमे देवता हुए। माता-पिताका स्वर्गवास होने पर भगवान की प्रतिक्षा पूर्ण हुई और वे दीक्षार्य तयार हुए। देवोंने प्राचीन परम्परा अनुसार सुवर्णमुद्राएँ उपस्थित की। भगवानने एक चर्प दान देकर देवों एवं मनुष्यों के सम्मुप मंचम स्वीकार किया तपस्यार्थ बनकी तरफ़ विहार करने लगे, नव इन्द्र ने कहा-प्रमोददमन्य-श्रवस्थान प्रापको उपसर्ग बहुत गे, इसलिए मैं यापकी मेवाम न जाऊँ। प्रभु बोल-न्द ! ऐसेन नो कमी या पीर नही कमी होगामितीर्थकर फिनीका महाराना चाई। प्रनकी प्रदान माहममरी-वाणी सुनकर नोट- गर्मायने माता सुपर लिए हाय-पर न हिलाने से যা ধৰি ৰ গণ মা খা খা মান মিন গান ৭ ঘন ? । বন দাশ না মন সব কী যা কি -निवासी विमान में दो महीगा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ प्रसङ्ग सत्रहवां -इन्द्रादि देवोंने कहा- आप घोर परीषहोंको समभावसे सहन करेंगे अतः आपका नाम महावीर उपयुक्त है । ऐसे कहकर प्रशंसा करते हुए इन्द्रादि सब अपने-अपने स्थान गए एवं प्रभु कर्मोका नाश करनेके लिए तीन तपस्या करने लगे। तपस्या कमसे कम दो उपवास और ऊपरमें पक्ष, मास, दो मास, तीन मास, चार मास यावत् छः मास तक भी की। छद्मस्थकाल भगवान्ने प्रायः तपस्यामें ही व्यतीत किया । बारह वर्ष तेरह पक्षोंमे केवल ग्यारह महीने बीस दिन आहार लिया और ग्यारह वर्प छ. महीनेपच्चीस दिन निराहार रहे । तपस्या में उन्होंने पानी कभी नहीं पिया और प्रायः ज्ञान, ध्यान, मौन एवं योगासन ही करते रहे। साढ़े बारह वर्षों में मात्र एक मुहूर्त नींद ली। प्रभुने तपस्याके साथ-साथ बड़े-बड़े अभिग्रह किए, उनमे तेरह बोलका अभिग्रह बहुत ही उत्कृष्ट था, जो पॉच महीना पच्चीस दिनके बाद सती चन्दनवालाकै हाथसे सम्पन्न हुआ। उपसर्गोकी झांकी तपस्याके समय देवता, मनुष्य एवं तिर्यञ्चों द्वारा अनेक भीषण उपसर्ग किए गए, उनमेंसे कुछ एक नीचे दिए जा रहे है-- यक्षालयमें ध्यानस्थ अवस्थामें शूलपाणि यक्षने अनेक उपद्रव किए। चण्डकौशिक सांपकी बांबी पर ध्यान करते समय उसने तीन बार डंक मारा, उससे घोर पीड़ा हुई। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन लाट देशमें विहार करते समय तीन साल तक अनाद लोगोंने अज्ञान एवं द्वेपके वश प्रभुको चोरटा कह कर अनेक प्रकारके वनोंसे वोधा और लकुटादिकसे पीटा। कहीं उनके पीछे कुत्ते लगवाये गए, तो कहीं उनके पैरों पर सीर रांधी गई। इन्द्र से प्रशंसा सुनकर अभव्य समा नहीनों तक साथ रहकर बड़ी भारी तकलीफें दीं। फिर भी फूलने पर भगवान्ने उसको अपना हितैषी ही बताया। तब उसने अत्यन्त होकर एक ही रातमें बीस उपमर्ग किए। वामुसीचींटियो वि सांप, हाथी एवं सिंहादि बनाकर ध्यानस्थ भगवानके शरीर पर छोडे, हजार-भारका गोला उनके मस्तक पर कासे गिराया तथा ऐसी सूक्ष्मरजोंकी वृष्टिकी, जिससे सांस लेना भी मुश्किल हो गया। फिर भी भगवान सुमेरुपर्वतकी तरह अपने ध्यानमें अडिग रहे । एकदा अज्ञानी ग्वालेने अपने बैल न मिलनेसे रोपामा होकर कानोंमें कीलियां लगा दीं। भी पीड़ा हुई, मुँह सूज गया फिरमी प्रभु तो उसकी परवाह न करते हुए ध्यान ए तपस्या ही लीन रहे । मौका पाकर निकाल दिया, लेकिन भगवान तो समतामे । पर था, और नये पर राग था छोटी-नी लेग्रनी कहां तक चन कर सकती है। इस प्रकार बारह वर्ष और तेरह ने उन कीलियों को निमग्न थे। न तो तुच्छ-सी बुद्धि तक भगवान महा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग सत्रहवां ६७ वीरने अद्भुत वीरताके साथ कर्मशत्रुओंसे युद्ध किया । आखिर कर्म शत्रु हारे और वैसाख शुक्ला दशमीके दिन प्रभु केवलज्ञानी वने । मध्यमअपापा नगरीमें समवसरण हुआ। इन्द्रादि दर्शनार्थ प्राए । चमत्कार देखकर विद्याका अभिमान करते हुए चवालीस सौ छात्रोंसे परिवृत इन्द्रभूति-गौतम आदि ग्यारह वेदान्तीब्राह्मण समवसरणमें उपस्थित हुए। लेकिन प्रभावित होकर कुछ वोल नहीं सके एवं अपने मनकी शंकाओंका समाधान पाकर समीने भगवानके पास दीक्षा ग्रहण करली । चार तीर्थों की स्थापना हुई, गौतम आदि चौदह हजार साधु हुए, चन्दनवाला आदि छत्तीस हजार साध्वियों हुई, आनन्द आदि एक लाख उनसठ इजार श्रावक हुए और सुलसा आदि तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएं हुई। प्रभुने धर्म मार्गमें जातिको महत्त्व न देकर गुण एवं कर्मको ही मुख्य माना। हर एक जातिको उन्होंने अपने संघमें स्थान दिया। उदायन-प्रसन्नचन्द्र श्रादि बड़े-बड़े नरेशोंने मृगावती-चेलना आदि महारानियोंने तथा शिवराज-स्कन्दक आदि संन्यासियोंने प्रभुके पास संयम स्वीकार किया और नेणिक आदि राजा उनके परम श्रद्धालु भक्त हुए। भगवान्ने अहिंसाको उत्कृष्ट धर्म बताया और यज्ञोंमे होनेवाली हिंसाका उग्र विरोध किया। तीस वर्ष तक विश्वको सन्मार्गमें लगाकर राजा हस्तपालकी राजधानी पावापुरीमें अन्तिम Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-नीषन चातुर्मास किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीको रातके बारह बजे प्रभु चौविहारमंधारा करके अमृतवर्मणी वाणी से लगातार सोलह पहर तक उपदेश दिया, जिसे अनेक देवता और मनुष्य सुनते रहे। ऐसे मान-गुनाते-सुनाते कार्तिक कृष्णा श्रमावस्था रातके बारह बजे आठ कमको पाकर प्रभु निर्वाणको प्राप्त हो गए। निर्माण महोत्सव करनेके लिये इन्द्रादि देवता आए । मन रत्नोंके प्रकाशसे अँधेरी श्रमावस्था मी दिवाली नामका पर्व बन गई। भगवान महावीरकी नदी पर श्री ( जो पांचवें गणधर थे ) बैठाए गये । ક Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग अठारहवां श्री गौतमस्वामी : गौतमस्वामीका नाम जैनजगत् में बहुत प्रसिद्ध है जो भग-. वान् महावीरको जानते हैं प्रायः वे गौतमस्वामीको जानते ही हैं। चौदह हजार साधुओं में मुख्य होते हुए भी उनकी निरभिमाता अवर्णनीय थी, चार ज्ञान और चौदहपूर्वके धारक होते हुए भी उनका विनय अनूठा था तथा विचित्रलब्धियोंके भण्डार होते हुए भी उनकी क्षमा अद्भुत थी । वे हर एक बात भन्ते ! न्ति ! कहकर कितने विनयके साथ प्रभुसे पूछा करते थे और भु गोयमा ! गोयमा ! सम्बोधन करके कितनी वत्सलता के साथ उत्तर देते थे, जैनशास्त्रोंका अध्ययन करनेसे ही उसका पता चल सकता है। वे कौन थे ? बिहार प्रान्तके गोबर ग्राममे पृथ्वी माताकी कुक्षि द्वारा इन्द्रके सपने से उन्होंने जन्म लिया था । उनके पिताका नाम वसुभूति था एवं वे जाति से ब्राह्मण थे । यद्यपि इन्द्र- स्वप्नके अनुसार उनका नाम इन्द्रभूति रखा गया था, फिर भी गौतम गोत्र होनेके कारण जैनजगत् में इन्द्रभूति की अपेक्षा गौतमस्वामी विशेष प्रसिद्ध हो गया। दो छोटे भाई थे, उनका नाम अग्निभूति एवं वायुभूति था । इन्द्रभूति वेद और वेदान्तके अद्भुत वेत्ता । वे पाँच सौ छात्रोंको पढ़ाते थे तथा स्वर्गकी इच्छासे अनेक प्रकार के यज्ञ किया करते थे । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S जैन-जीवन यज्ञमें चोभ नगरी में मोमिलाके यहां इन्द्रभूति एकदा यदि ग्यारह माह्मण यह कर रहे थे। इधर केवलज्ञान होते ही भगवान महावीरका वा समयमर हुआ। दर्शनार्थ इन्द्रादिदेवना आने लगे। उन्हें देखकर इन्द्रभृति कहने लगे - से मव देवना हमारे बाकी आहुति लेने या रहे है। किन्तु उन्हें ऊपरके ऊपर जाते देखकर उन्होंने अपने साथियोंसे पत्रा - तब किसीने यह दिया कि एक इन्द्रजालिकने श्रावर इन्द्रजाल खोला है- ये नव उमीके पास जा रहे है । चुध होकर इन्द्रभूति बोले- परे ! यह कौनसा इन्द्रजालिक बाकी रह गया, जब कि मैंने दुनियां मरटे विद्वानोंको जीन लिया । इन्द्रभूति प्रभुके पास इस प्रकार विद्या मदसे गर्जते हुए इन्द्रभूति पाच-नी लान परिवार ज्यों ही प्रभुके समयमरण में प्रविष्ट हुए, वे से हो गए और सोचने लगे - क्या यह णा है ? विष्णु है ? महेश है ? सूर्य है ? चन्द्र है ? इन्द्र है ? या कुबेर है ? नहीं !! वे के चिन्ह न होने तो नहीं है किन्तु सर्व an area भगवान् महावीर है । क्या करें ? का बार्गे? इनका तेज तो बढ़ने नहीं देता और यम जमी होगी। ऐसे विचारही रहे थे कि इन्द्रमृति !? यतो - पार नहीं था और रहते यदि सेमेरीकाका समाधान Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★ प्रसङ्ग अठारहवां तो मैं इनका शिष्य बन जाऊँ । ७१ दद द सर्वज्ञ प्रभुने गम्भीर स्वरसे शीघ्र ही ददद इस वेद - मन्त्रका उच्चारण किया और कहा - इंन्द्रभूति । तुम्हारे दिल में जीव है या नहीं ? यह शंका है, किन्तु तुम्हारा यह वेदमन्त्र ही जीवकी सिद्धि करता है । देखो इसमें एक द का अर्थ है दान | दूसरे द का अर्थ है दया तथा तीसरे द का अर्थ है दमन । अब सोचो। दान, दया और इन्द्रियदमन जीव करता है या जड़ पदार्थ ? समाधान और दीक्षा बस, इन्द्रभूतिजीका जीव - विषयक सन्देह मिट गया एवं वे उसी वक्त पॉच - सौ शिष्यों सहित प्रभुके पास साधु बन गए । पता पाकर अग्निभूति आदि विद्वान अपने-अपने शिष्योंके परिवारसे आते गए और शंकाओंका समाधान करके संयम लेते गये । एक ही दिनमे चवालीससौ ग्यारह दीक्षाएँ हो गई । जो ग्यारह पण्डित थे वे ग्यारह गणधर कहलाए। उनके नाम इस प्रकार थे १. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त ५. सुधर्म ६. मण्डितपुत्र ७. मौर्यपुत्रं = अकम्पित ६. अचल भ्राता १०. मेतार्य ११. प्रभास t उपदेश प्रभुने उत्पात, व्यय और धौव्य-इन तीन पदोंका उपदेश Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- जैन-जीवन देकर उनको अगाध तत्वज्ञान दिया। उन्होंने उसी ज्ञानका संकलन करके आगम-शास्त्र बनाए । गौतमस्वामी निरन्तर छठ्ठछट्ठ तपस्या किया करते थे तथा सूर्यके सामने ध्यानस्थ होकर आतापना लिया करते थे। तपस्यासे. उन्हें अनेक चमत्कारी लब्धियां-शक्तियां प्राप्त हुई । उनका प्रभुके साथ अत्यधिक प्रेम था। इसीलिए उन्हें प्रभुकी विद्यमानतामें केवलज्ञान नहीं हुआ। केवलज्ञान और निर्वाण , भगवान्ने लाभ समझकर अन्तमें उन्हें देवशर्मा ब्राह्मणको प्रतिबोध देनेके लिए भेज दिया एव पीछेसे आप मोक्ष पधार गए । यह समाचार सुनकर गौतमने कुछ क्षणों तक काफी मोहविलाप किया । फिर सम्भल कर शुक्लध्यानमे लीन बने एवं शीघ्रही केवलज्ञानको प्राप्त हुए तथा आठ साल केवल-पर्याय पालकर सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हुए। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + प्रसङ्ग उन्नीसवां महान् अभिग्रह फला 7 1 चन्दनवाला महासती चन्दनवाला महारानी धारणीकी पुत्री थी । उसके C पिता चम्पा नगरीके महाराज दधिवाहन थे । चन्दनबालाका जन्मनाम वसुमती था । किन्तु विशेष शीतल होनेके कारण चन्दना एवं चन्दनबाला होगया | माताकी शिक्षा पाकर राजकुमारी बहुत ही धार्मिक-संस्कारवाली बन गई । अाक्रमण एक बार कौशाम्बिपति राजा शतानीकने चम्पानगरी पर अचानक आक्रमण कर दिया। महाराज दधिवाहन भाग गए । दुश्मनकी सेनाने तीन दिन तक शहर में लूट-खसोट की जिसके जो कुछ हाथ लगा, ले भागा। एक सैनिक राजमहल मे आया और रूपसे मोहित होकर रानी एव राजकुमारीको ले चला । वह इतना अधिक कामातुर हो गया कि जंगलमे ही जबरदस्ती अत्याचार करने की चेष्टा करने लगा | महारानीने शीलभंगका अवसर देखकर अपनी जीभ खीचकर प्राणोंका ' बलिदान कर दिया । हाथ पकड़ लिया माताके भरते ही चन्दनबाला भी जीभ खींचकर मरने लगी । सैनिकने उसका हाथ पकड़ लिया और रोता हुआ अपने अपराधकी क्षमा मांगने लगा तथा धर्मकी पुत्री बनाकर राज 1 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन कुमारीको अपने घर ले आया। नौजवान लड़की को देखते ही सैनिककी स्त्री झगड़ा करने लगी एवं वात-बात मे चन्दनवालाको हैरान करने लगी । उसके मनमें सन्देह हो गया था कि कहीं यह मेरे घरकी स्वामिनी न बन बैठे । एक दिन सैनिकसे वह कहने लगी कि चम्पाकी विजयके उपलक्षमे धन राशिके बदले तुम मेरे लिए यह झगड़ा लाए हो । जाओ । इसे आजकी आज वेचकर २० लाख मोहरें लाओ अन्यथा मैं मर जाऊँगी ! भयंकर क्लेश देखकर राजकुमारी घरसे निकल पड़ी और पीछे-पीछे रोता हुआ वह सैनिक भी । कोई खरीदो ! बाजारके बीच खड़ी होकर महासती कहने लगी- अरे लोगों । मुझे कोई खरीदो और मेरे बापको वीस लाख मोहरें दो । मै नौकरका हरएक काम कर दूँगी । बाजार मे मेला-सा लग रहा था | इतनेमे एक वेश्याने आकर उसे खरीद लिया । कन्याने पूछा- माताजी! मुझे क्या काम करना होगा ? 1 वेश्या - काम और कुछ भी नही है, एक मात्र आए हुए मनुष्योंका दिल खुश करना होगा । - चन्दनबाला – माताजी ! मैं सती हूँ, यह काम नही कर सकती । वेश्या -- सौदा हो चुका व तुझे मै हर्गिज नहीं छोड़गी । वेश्याकी दासियां सतीको जबरदस्ती पकड़ने लगीं, तब सतीने प्रभुका ध्यान कर लिया। देवशक्तिसे अचानक बन्दर आए और वेश्याके शरीरको नोच डाला एवं रोती Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग उन्नीसवां पीटती वह अपने स्थान चली गई। फिर भी क्रोध नहीं किया इतनेमें एक धनावा सेठ आया उसने चन्दनवालाको बीस लाख में खरीदा। ज्योंही बालिका घर आई मूला सेठानीके आग लग गई और सैनिककी स्त्रीके समान वह भी क्लेश करने लगी। एक दिन सेठ कार्यवश कहीं बाहर गांव गया था। पीछेसे मौका पाकर सेठानीने घरके द्वार बन्द करके वालिकाका सिर मुंड दिया, वस्त्राभूपण खुलवा लिए, हाथों और पैरोंमें हथकड़ियां और वेड़ियां.पहनादी और घसीटकर एक कोठेमें बन्द करके खुद अपने पीहर चली गई। सतीने माता पर फिर भी क्रोध नहीं किया वह परम-शान्तभावसे प्रभुका स्मरण करती रही। चौथे दिन सेठ आया। घर में सुनसान देखकर वह घवराया एवं वेटी! वेटी' कहकर चिल्लाने लगा। कोठा खोलकर ज्योंही चन्दनाको देखा, बेहोश होकर बुरी तरहसे रोने लगा। सत्तीने सान्त्वना देते हुए कहा-पिताजी! मै तीन दिनसे भूखी हू अतः कुछ खाना तो दीजिए, रोनेसे क्या होगा! सेठने इधरउधर देखा तो मात्र तीन दिनके रांधे हुए उड़दोंके बाकुले मिले। कोई वर्तन भी नहीं पाया अतः छाजके कोनेमे उन्हें डालकर चन्दनाको दिया और स्वयं हथकड़ी-बड़ी कटवानेके लिए लोहारको लेने गया। अभिग्रह उस समय भगवान महावीरने तेरह वातोंका महान् अभि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन ग्रह धारण कर रखा था। वह यह था-(२) देनेवाली सदाचारिणी हो । (२) राजकन्या हो । (३) खरीदी हुई हो। (४) उसका सिर मुंडा हुआ हो । (५) एक मात्र लंगोटी पहने हो। (६) हाथों में हथकड़ी हो । (७) पैरोंमे बेड़ी हो (5) उसका एक पैर देहलीके बाहर हो और एक अन्दर हो। (१०) छाजके 'कोनेमें उड़दके चाकुले हों। (११) प्रसन्न हो । (१२) आंखोंमें आंसू हों। (१३) तीसरा पहर हो- ये तेरह बाते मिलेंगी तो ही मैं पारणा करूँगा, अन्यथा छ महीनों तक अन्न-पानी नहीं लू गा! । - आंसू नहीं थे पॉच मास पच्चीस दिन बीत चुके थे इधर सती चन्दनवाला उन उड़दके वाकुलोंको हाथमें लेकर भावना भा रही थी कि कोई त्यागी-तपस्वी मुनि आ जाए, तो पहले उन्हें कुछ देकर पीछे पारणा करू। अचानक भगवान् पधार गए। देखते ही चन्दनवाला हर्प-विभोर हो गई और प्रार्थना करने लगी-तारिए भगवन् ! तारिए इस अनाथ बालिकाको । प्रभुने देखा तो सब बोल मिल रहे थे, लेकिन आंखोंमे आंसू नहीं थे अतः प्रभु वापस फिर गए । वस, फिरते ही वालिका रोने लगी और कहने लगीप्रभो ! क्या आप भी मुझे इस विपत्तिमे छोड़कर जा रहे हैं ? दीनबन्धों' दया कीजिए एव मेरे हाथोंसे उड़दके वाकुले लीजिए ! अभिग्रह फल गया चन्दनवालाकी आखोंमे आंसू आते ही अभिग्रह फल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ प्रसङ्ग उन्नीसवां गया और प्रभुने वहीं उन वाकुलोंसे पारणा कर लिया। देवोंने अहोदानम्-अहोदानम्की हर्प ध्वनि की । साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राऍ वरसाई तथा सतीको दिव्य वस्त्राभूषणों और केशोंसे . अलंकृत करके रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाया। पता पाते ही दौड़कर मूलासेठानी आई और ज्योंही स्वर्ण मुद्राओंके हाथ लगाने लगी, देववाणीने कहा- यह सारा धन महासतीके दीक्षा महोत्सव में लगेगा । खवरदार । किसीने ले लिया तो ! इवर से लोहारको लेकर सेठ आया, पर वहां तो सारा खेल ही बदल चुका था । चन्दनाने माता - पिताको नमस्कार करके सिंहासन पर दोनों तरफ बैठाया । समाचार सुनकर राजा शतानीक और रानी मृगावती, जो इसके मौसा-मौसी थे, आए एवं अपराधकी क्षमा मांग कर सतीको राजमहलोंमे ले गये । फिर शीघ्रातिशीघ्र महाराजा दधिवाहनको, जो कहीं भाग गये थे, पता लगाकर लाए और क्षमायाचना करके चम्पाका राज्य उनको वापस दे दिया । दीक्षा साढ़े बारह साल घोर तपस्या करके प्रभु सर्वज्ञ बने गौतमादि चवालीस सौ पुरुपोंने दीक्षा ली । इधर चन्दनबाला भी भगवान्‌के चरणों मे पहुँची और अनेक सखियोंके साथ दीक्षित वनी | भगवान्ने विशेष योग्य समझकर उसे साध्वीसघकी मुख्यता दी। बहुत वर्षों तक संयम पालकर अन्तमें आठों कर्मोंका नाश करके वह सिद्धगतिको प्राप्त हुई एव सदाके लिए Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैन-जीवन जन्म-मरणके बन्धनोंसे छूट गई। विकट समयमे धर्मकी रक्षा कैसे करना, तथा दुःखमे सहनशील बनकर धैर्य कैसे रखना आदि-आदि बाते चन्दनबालाकी जीवनीसे अवश्य सीखनी चाहिए। maa- - ache D - D %3D Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग वीसवां दो साधु जला दिए [गोशालक] गोशालक डकोत जातिका था। दीक्षाके बाद दूसरा चौमासा भगवान महावीरने नालन्दा (राजगृह ) में किया। गोशालकने प्रभुके त्याग एवं तपस्यासे प्रभावित होकर उनके पास दीक्षा ली। यद्यपि केवलज्ञान होनेसे पहले तीर्थकर दीक्षा नहीं देते, लेकिन भावीवश भगवान् उसे नहीं टाल सके । अविनीत गोशालक शुरूसे ही अविनीत था । प्रायः प्रभुकी बातको प्रसिद्ध करनेकी चेष्टा किया करता था। एक बार गुरु-चेले सिद्धार्थपुरसे कूर्मग्रामको जा रहे थे। रास्तेमे तिलका बूटा देख कर गोशालकने पूछा- भगवन् ! क्या इसमें तिल उत्पन्न होंगे? __ भगवान बोले, हां ! इन सात फूलोंके जीव इस बूटेकी एक फलीमें सात तिल होंगे। भगवान आगे पधार गये और उस अविनीतने ___ उस बूटेको उखाड़ कर ही फैक दिया। वचा लिया आगे कूर्म-ग्रामके बाहर वैश्यायन नामक तपस्वी धूपमें उलटे सिर लटकता हुआ तपस्या कर रहा था। उसकी जटासे जूएँ गिर रही थी और वह पुनः उन्हें उठा-उठा कर अपनी जटाओंमें रख रहा था । गोशालकने जूओंका शय्यातर-घर कह कर उसे छड़ा। उसने गुस्से होकर उष्ण-तेजोलेश्या छोड़ दी। गोशालक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन-जीवन भस्म हो जाएगा ऐसे सोचकर प्रभुने अपनी शीतल तेजोलेश्या निकाली एवं उष्णतेजको नष्ट करके उसको बचा लिया। लब्धिकी विधि गोशालकने पूछा- भगवान् । इस लब्धिकी विधि क्या है ? प्रभु वोले, वेले-वेले निरन्तर छः मास तक तपस्या करके पारणेमें उबले हुए मुट्ठीभर उड़द और एक चुल्लू गर्म पानी लेकर सूर्यके सामने आतापना लेनेसे यह लब्धि उत्पन्न हो सकती है। कुछ समयके बाद भगवान् उसी मार्गसे वापस आए । तिलके बूटे वाला स्थान आते ही गोशालकने कहा- देखिए भगवन् ! तिल पैदा नहीं हुए है । प्रभु बोले-देख । तेरा उखाड़ा हुआ तिलका बूटा फिरसे खड़ा हो गया है और दाने भी उसमें सात ही हैं। होनहारका यह अद्भुत चमत्कार देखकर गोशालक नियतिवादकी तरफ झुक गया और उसने प्रभुसे अलग होकर घोर तपस्या द्वारा तेजोलब्धि प्राप्त की। फिर श्री पार्श्वनाथ भगवान के शासनसे गिरे हुए छः साधु उसे मिले, उनसे उसने निमित्तशास्त्र पढ़कर दुनियांको सुख-दुख, हानि-लाम और जन्म-मरण सम्बन्धी बातें बतलाई एव चमत्कार को नमस्कारवाली कहावतके अनुसार उसकी भक्तमण्डली बहुत ज्यादा बढ़ गई । बढ़ क्या गई ! भगवान्के होते हुए भी वह तीर्थकर कहलाने लगा । भगवान्के श्रावक थे एक लाख उनसठ हजार और उसके श्रावक थे ग्यारह लाख इकसठ हजारे । वह' : उद्यमको न मानकर होनहारको ही मानता था। उसका कहना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग वीसवां ८१ था, कि जो कुछ होना है वह ही होता है, उद्यम करना व्यर्थ है। ___ सावत्थीमें भीषण उत्पात प्रभुसे अलग होनेके लंगमग अठारह वर्ष बाद एक बार भगवान् सावत्यो नगरी पधारे हुए थे और गोशालक भी वहीं था। मिक्षाके लिए जाते समय श्री गौतमस्वामीने लोगोंके मुंहसे सुना-- आजकल यहां दो तीर्थंकर विचर रहे हैं। वे प्रभुके पास आकर प्राश्चर्यसे पूछने लगे-प्रभो! क्या गोशालक भी तीर्थकर एव उर्वज्ञ हैं ? प्रभुने कहा, आजसे चौबीस वर्ष पहले यह मेरा शेष्य बना था तथा छ साल मेरे साथ भी रहा था। फिर अलग होकर इसने तेजोलब्धि एवं निमित्तशास्त्रका अध्ययन किया। अव उस अध्ययनके प्रमावसे जगत्को चमत्कार दिखला (हा है और तीर्थंकर कहला रहा है, लेकिन वास्तवमे यह असत्य प्रचार है। में अभी पा रहा हूँ प्रभुकी कही हुई यह वात गोशालकने सुनी एवं वह ऋद्ध हुआ । प्रभुके शिष्य श्री आनन्दमुनि जो भिक्षार्थ भ्रमण कर रहे थे, उन्हें देखकर कहने लगा~ो वे आनन्द । तेरे गुरु जहाँ-तहाँ लोगों में मेरी निन्दा कर रहे हैं, मैं उसे सहन नहीं कर सकता। ला। उन्हें सावधान करदे और कहदे कि मै वहाँ अभी पा रहा हूँ और निन्दाके फल दिखा रहा हूँ। भयभीत-आनन्दमुनिने Inaram" प्रभुसे सारे समाचार कहे। प्रभुने गौतम आदि सब Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन 1 साधुओं को सूचना कर दी कि क्रुद्ध गोशालक आ रहा है, इस समय उससे कोई धर्मचर्चा न करें । =२ 1 दो मुनि भस्म वस, इतने ही में अपने शिष्यों सहित गोशालक वहाँ आ गया और क्रोध के आवेश में कहने लगा- महावीर | मै तुम्हारा F शिष्य जो गोशालक था, उसके शरीर मे निवास करनेवाला कौडिन्यायन गोत्रीय - उदायी नामका धर्मप्रवर्तक हूँ, लेकिन तुम्हारा L दीक्षित गोशालक नहीं हूँ । प्रभुने कहा- सत्य क्यों बोलता है, वही गोशालक तो है । अब तो गोशालक गर्म होकर बहुत ही अंट-सट बोलने लगा । यह अनुचित वर्ताव देखकर क्रमश. सर्वानुभूति और सुनक्षत्रमुनि रुक नहीं सके एवं कहने लगे-अरे गोशालक | अपने उपकारी धर्मगुरु के साथ यह क्या व्यवहार कर रहे हो ? कुछ विचार तो करो । ठहरो ! ठहरो || करता हूँ विचार, ऐसे कहकर क्रोधी गोशालकने तेजोलेश्या छोड़ दी, उससे वे दोनों मुनि भस्मसात् हो गये और क्रमशः आठवें एव बारहवें स्वर्ग मे गये । फिर हित शिक्षा देने से प्रभु पर भी उसी शक्तिका प्रयोग करता हुआ बोला-श्रो महावीर । मेरे इस तेजसे जलकर { ܐ ܐ 2 1. • महीनों के अन्दर ही तुम मर जाओगे । प्रभुने कहा- गोशालक 1 मैं तो सोलह वर्ष तक सानन्द विचरूँगा, किन्तु तेरे अपने ही तेज़से जलकर तू जसे सातवे दिन मृत्यु को प्राप्त होगा । ठीक ऐसा ही हुआ । यद्यपि उसके तेजसे प्रभुका शरीर A Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग बीसवां शकरकंदकी तरह सिक गया और उसके कारण आप छः मास तक उपदेश नहीं कर सके । लेकिन इतना कुछ होने पर भी शरीर वज्रमय था अतः वह तेज उसके अन्दर नहीं घुस सका और लौटकर अपने मालिक गोशालकके ही शरीरमे जा घुसा। उसके शरीरमें आग-अाग लग गई, वह विभ्रान्त-सा हो गया, साधुओंके पूछे हुए प्रश्नोंका कुछ भी जवाब नहीं दे सका और चुप-चाप अपने स्थानको लौट गया । अपने धर्माचार्यकी यह दशा देखकर उसके अनेक शिष्य उसे झूठा समझकर भगवान्की शरणमें आ गए। भावमा बदल गई गोशालक मनमें तो जान ही रहा था कि भगवान् सच्चे हैं और मै झूठा हूँ। लेकिन शिष्योंके चले जानेसे तथा शरीरमे दाह लगनेसे अब उसकी भावना और भी बदल गई। वह अपने किए हुए काले कारनामोंका स्मरण करता हुआ रो पड़ा और अन्तमे अपने मुख्य श्रावकोंको बुलाकर कहने लगा कि सच्चे सर्वज्ञ भगवान् तो प्रभु महावीर ही हैं । मैने तुम्हें जो कुछ समझाया था वह असत्य है । हाय । मिथ्याप्रचार करके मैने बहुत बड़ा पाप किया है। अव मेरी जीवनवाती शीघ्र ही बुझने वाली है। उक्तकार्य अवश्य करना ! मृत्युके बाद मरेहुए कुत्तेकी तरह मुझे सारे शहर में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन-जीवन . घसीटना और मुहमें थूकते हुए कहना कि यह मखलिपुत्र-गोशालक पाखण्टी था, धोखेबाज था और इसने झूठा ढोग करके टुनियाको ठगा था। यदि तुम मेरे सच्चे भक्त हो तो उक्त कार्य अवश्य करना। ऐसे अपनी निन्दा करता हुआ गोशालक मरकर बारहने स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। भक्तोंने मकानके अन्दर नगरकी कल्पना करके गुप्तरूपसे अपने गुरुकी आज्ञाका पालन किया। गोलिक स्वर्गसे च्यवकर विमलवाह्न नामक राजा होगा, वह सुमंगल नामक मुनिको सताएगा और मुनि द्वारा भस्म किया जा कर सातवें नरकमे जाएगा। फिर चारों गतियोंमे खूब भटककर अन्तमे सिद्ध, बुद्ध एव मुक्त होगा। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग इक्कीसवां किज्जमाणे कड़े (जमालि) भगवान् महावीरका कथन है किज्जमाणे कडे अर्थात् जो काम करना शुरू कर दिया वह किया ही कहलाता है क्योंकि कितनेक अंशोंमें तो वह हो ही चुका । जैसे-यदि कोई किसी गांवको लक्ष्य करके चल पड़ा उसे गाव गया कहा जाता है। ऐसे ही कपड़ा बुनना शुरू हो गया उसे बुनाही कहते हैं । जमालि इसी विषय पर सन्देह करके पतित हुआ था। जमालि भगवान् महावीरका संसारपक्षीय दामाद था। प्रभुकी वाणी सुनकर पांच-सौ क्षत्रियकुमारोंके साथ उसने दीक्षा ली थी। उसकी पत्नी प्रियदर्शना भगवान्की पुत्री थी, वह भी __ हजार स्त्रियोंके परिवारसे साध्वी बनी थी। दीक्षाका विस्तृत वर्णन भगवतीसूत्र में है। जमालिके शंका ग्यारह अंग पढ़कर जमालि प्रभुकी आज्ञासे पॉच-सौ साधुओंका मुखिया । वनकर विचरने लगा। इधर महासती प्रियदर्शना भी एक हजार साध्वियोंके परिचारसे गांवों-नगरोंमे धर्मका प्रचार करने लगी। एक बार जमालिमुनि सावत्थी नगरीके तिन्दुक घनमें ठहरा हुआ था। कुछ अस्वस्थताके कारण एकदिन उसने अपने साधुओंसे संथारा-बिछौना बिछाने के लिए Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैन-जीवन कहा। वे विछा ही रहे थे कि उसने व्याकुलतावश पूछा- विचा दिया विछौना ? उत्तर मिला-जी। विछा रहे हैं। यह उत्तर सुनकर जमालि सोचने लगा कि भगवान महावीर जो किज्जमाणे को कहते हैं वह असत्य है क्योंकि जवतंक कार्य पूर्ण नहीं होता तब तक फलदायक नहीं हो सकता । वस, मोहकर्मके उदयसे जमालि उल्टे रास्ते चढ़ गया और महावीर झूठे है एव मै सच्चा हूँ ऐसे अपने साधुओंसे कहने लगा। साधुओंने उसे बहुत सम. झाया, लेकिन वह नहीं माना, तव बहुत सारे साधु उसको छोड़कर भगवान्की शरणमे आ गये। इधर साध्वी-प्रियदर्शना भी जमालिकी बात पर विश्वास करके प्रभुसे अलग हो गई और जमालिके सिद्धान्तोंका प्रचार करने लगी। कुम्हारकी युक्ति एक बार वह ढक कुम्हारके यहां ठहरी हुई थी। कुम्हार भगवान्का श्रावक था। एक दिन उसने प्रियदर्शनाको समझानेके लिए उनकी पछेवड़ीके एक कौने पर आग लगा दी और वह जलने लगी। तब चौंककर प्रियदर्शनाने कहा-अरे रे ।। पछेवड़ी जल गई । सुनते ही कुम्हार बोला- महासतीजी! आप क्या फरमा रही हैं ? जमालिके सिद्धान्तसे, तो पछेवड़ी जलने लग गयी ऐसे कहना चाहिये, किन्तु जलते हुएको जलगया कहनां उचित नहीं है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ प्रसङ्ग इक्कीसवां आँखें खुल गई कुम्हारकी इस अद्भुत युक्तिसे प्रियदर्शनाकी अांखें खुल गई और अज्ञान एवं मोहवश की हुई अपनी भूलका पश्चात्ताप करती हुई जमालिको छोड़कर भगवान के चरणों में आ गई। एक चार जमालि चम्पानगरीमें भगवान्के समवसरणमें आकर कहने लगा कि मैं केवलज्ञानी -होकर निकला हूँ इसलिए मेरा सिद्धान्त सच्चा है । गौतमस्वामीने कहा- अगर तू केवलज्ञानी है, तो बता-यह संसार और जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत १ जमालि उत्तर नहीं दे सका, तव प्रभुने फरमाया- कि मेरे कई छद्मस्थ शिष्य इस प्रश्नका उत्तर दे सकते हैं। तू कहता है, मैं केवली ह तो फिर चुप क्यों खड़ा है ? फिर भी चुप ही रहा, तब भगवान् चोले-सुन । द्रव्योंकी अपेक्षासे संसार और जीव शाश्वत है तथा पर्यायकी अपेक्षासे अशाश्वत हैं। हठ नहीं छोड़ा जमालि शर्मिंदा होकर चुपचाप चला गया, किन्तु वह असिमानवश अपना दुराग्रह नहीं छोड़ सका और असत्य-प्ररूपणा करके दुनियांको बहकाता ही रहा । उसने सम्यक्त्वरत्न खो दिया एवं अन्तमे त्याग-तपस्याके बलसे मरकर छठे स्वर्गमे किल्विपी-हीनजातिका देवता बना। वहांसे च्यव कर संसार में भ्रमण करेगा और अन्तमे कर्मोका नाश करके मोक्ष पाएगा। कारण, एक वार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो गई थी। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग बाईसवां श्री जम्बूस्वामी वास्तवमे त्यागी वही है जो प्राप्त भोगोंको ठोकर मारता है, सन्तोपी वही है जो प्राप्त धनको छोड़ता है, क्षमावान् वही है जो आए हुए गुस्सेको दवाता है और मर्द वही है जो मार सकने पर भी नहीं मारता । श्री जम्बूम्वामीके त्याग एव वैराग्यकी कहां तक प्रशंसा की जाए, जिन्होंने शामको आठ-आठ सुन्दरियोंसे विवाह किया और सवेरे संयम ले लिया। संयम भी अकेलेने नहीं लिया, किन्तु पाँच-सौ सत्ताईसके साथ लिया था। जन्म और वैराग्य राजगृह नगरमे ऋषमदत्त सेठ था। धारणी सेठानी थी और उनके जम्यूकुमार नामक एक पुत्र था। वह पढ़-लिखकर तैयार हुआ, बड़े बडे रईसोंकी आठ पुत्रियोंसे उसका सम्बन्ध किया गया एव विवाह भी निश्चित हो गया। केवल एक ही दिन की देरी थी कि अचानक भगवान श्री महावीरके पट्टधर शिष्य श्री सुधर्मस्वामी वहां पधारे । अपना अहोभाग्य मानते हुए हज़ारों नगर निवासी दर्शनार्थ उपस्थित हुए, जिनमे जम्बूकुमार मी शामिल थे। सुधर्मस्वामीने अपनी प्रोजस्विनी वाणीमे संसारको निस्सार कहा, विषय-विलासोंको बूरके लड़के समान कहा तथा मौतिकसुखोंको मृगमरीचिकाकी उपमा दी। यह सुनकर जम्बूकुमार वैराग्यमावनासे प्रोत-प्रोत हो गए एवं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग बाईसवां गुरुजीसे प्रार्थना करने लगे-प्रभो ! संसार झूठा है । मै इससे उद्विग्न हो गया हूँ अतः साधु बनूगा। यों कहकर आजीवन ब्रह्मचारी रहनेका संकल्प किया। फिर घर आकर माता-पितास दीक्षाकी आज्ञा मांगने लगे। बात सुनते ही मां-बाप मूञ्छित हो गये। घरमें हा-हाकार मच गया और कुमारको बहुत समझाया गया, किन्तु वे तो टससे मस भी नही हुए । अन्तमे केवल विवाह करनेका आग्रह किया गया । तब माता-पिताका मन रखने के लिए कुमारने कहा- मैं आपके कहनेसे आज शामको विवाह तो करा लूंगा, लेकिन सवेरे दीक्षा लिए बिना कभी न रहूंगा । यह बात ससुरालवालोंको भी कहलवा दी गई। एवं वे भी इस बात से सहमत हो गए। विवाह और चर्चा बड़ी धूमधामसे विवाह सम्पन्न हुआ। निन्नाणवे करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दहेजमें प्राप्त हुई। जम्बूकुमार रंगमहलमें पहुँचे, लेकिन विवाहकी खशीका निशान तक नहीं था। वे सोच रहे थे कि कव यह रात पूरी हो और कब मैं संयम ग्रहण करू। आठों स्त्रियोंने अपने पतिको भोगोंकी ओर आकृष्ट करनेके लिए अनेक हाव-भाव-विलास-विभ्रम 'किए, एक-एकसे अद्भुत, युक्तियां लगाई, किन्तु जम्बूकुमारने उनको ऐसे वैराग्यपूर्ण जबाब दिये । जिनसे सारीकी सारी संयम लेनेको तैयार हो गई। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Py ६० जैन जीवन प्रभव चोर पति-पत्नियोंकी चर्चा चल ही रही थी कि प्रभावादि पांच सौ चोर वहां आए और अपार धनराशिकी 'गठड़ियां वांधकर ले जाने लगे । देवशक्तिसे प्रभवके सिवा सारे ही चोर स्तब्ध हो गए । आश्चर्यचकित प्रभव इधर-उधर देखने लगा, तो ऊपरसे कुछ आवाज़ आई तथा दीपकका प्रकाश भी नज़र चढ़ा । चुपकेसे ऊपर जाकर ज्योंही कुछ चर्चा सुनी, फिर तो रुक ही न सका एव प्रकट होकर कहने लगा- अरे जम्बू ! क्या इन दिव्यभोगोंको तथा इन अप्सराओंको छोड़ना योग्य है । क्या वृद्ध मातापिताओं को रुलाना शोमा देता है ? नहीं, नहीं, तेरे जैसे विवेकीके लिए कदापि नहीं ! जम्बुका जबाब अरे प्रभव ! तू मुझे क्या समझाने आया है? सुधर्मगुरुने मेरी आखें खोल दीं और अब मैं समझ गया कि विषयसुख अपार दुःखोंसे घिरी हुई एक शहदकी बून्द है, इन स राओंका और माता-पिताओं का प्रेम अनन्त-मुक्ति सुखोंको रोकनेवाला है एवं तू जिस धनके लिए भटक रहा है वह भी यहीं रह जानेवाला है । प्यारे प्रभव ! त्याग दे इस संसार की मायाको ! बस, बातों ही बातोंमे सूर्य उदय हो गया और चोर नायक प्रभव भी उनके साथ दीक्षा के लिए तैयार हो गया । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग वाईसवां दीक्षा और निर्वाण - दूसरे चोर भी संयम लेनेको तैयार हो गए तथा वर- कन्याओंके माता-पिता भी। पॉच-सौ सत्ताईसके परिवारसे श्री जम्बू कुमारने सानन्द दीक्षा ली और श्री सुधर्मस्वामीके पट्टधर हुए अस्तु ! इस भरवक्षेत्र में अन्तिमकेवली भी ये ही थे। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेईसवां पतन और उत्थान प्रसन्नचन्द्र - राजर्षि " किसी अनुभवीने ठीक ही कहा है, मन एव मनुष्याणा, कारण चन्धमोक्षयो' बांधनेवाला एवं खोलनेवाला यह मन ही है । स्वर्गेकी दिव्यलीला एव नरकोंकी घोर पीड़ा देनेवाला भी यह मन ही है । आप पढ़कर आश्चर्य करेगे कि प्रसन्नचन्द्र राजर्पिने मन हीसे सातवीं नरककी तैयारी कर ली और थोड़े ही क्षणों में उसी मनके सहारे केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । 1 पोतनपुरपति महाराज प्रसन्नचन्द्र भगवान् महावीर की वाणी सुनकर वैराग्यमें इतने भींग गये कि एक क्षण भी घर में रहना उनके लिए मुश्किल हो गया अतः बहुत छोटेसे राजकुमारको राज्य देकर मन्त्रि मण्डलको कार्य भार सौंप दिया और स्वयं साधु बनकर प्रभु के साथ विचरने लगे एव घोरतपस्या करने लगे । दुमु ख दूत 「 एक वार महावीर प्रभु राजगृह पधारे। राजर्षि वहां श्राज्ञा लेकर दोनों हाथ ऊँचे करके वनमे एक वृक्षके नीचे ध्यान करने लगे । राजा श्रेणिक वढी धूम-धाम से भगवान के दर्शनार्थ जा रहे थे । उनके दुर्मुख नामके दूतने ध्यानस्थ - मुनिको अपमान - सूचक शब्दोंमे कहा - धिक्कार है तुझे और धिक्कार है इस तेरे साधुपनको ! जो तेरे जीते-जी तेरा राज्य खतरेमे जा रहा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग तेईसवां ६३ है । क्योंकि सारा मन्त्रिमण्डल ही बदल गया है अतः अब तेरे पुत्रको राज्यभ्रष्ट कर देगा । वस, ऐसे सुनते ही राजर्षि भान भूलकर मन ही मन मन्त्रियोंसे घोरयुद्ध करने लगे । क्या गति होगी ? राजा श्रेणिकने भी ध्यानस्थ मुनिको सिर झुकाकर फिर प्रभुके दर्शन किए और पूछा- भगवन् ! घोरतपस्या करनेवाले राजर्षि - प्रसन्नचन्द्रकी क्या गति होगी ? प्रभु बोले- यदि इस समय आयुष्य पूर्ण करें तो सातवीं नरकमे जाएँ । क्या सातवीं नरक ? नहीं ! नहीं ! अब छट्ठी नरक । राजाके दिलमें आश्चर्यका पार नहीं रहा अतः बार-बार यही सवाल करने लगा और प्रभु पांचवीं, चौथी यावत् एक-एक नरक घटाने लगे तथा फिर तिर्यब्व, मनुष्य, व्यन्तर, भवनपति, ज्योतिषी एव प्रथमस्वर्ग बताने लगे । ज्यों-ज्यों प्रश्न होता, एक-एक स्वर्ग बढ़ जाता । अन्तमे प्रभुने फरमाया कि इस समय यदि राजर्षिकी मृत्यु हो तो छब्बीसवें स्वर्ग जाएँ । 1 1 गतिमें इतना फेर - फार कैसे ? आश्चर्यचकित राजा श्रेणिकने पूछा- प्रभो ! कुछ समझ में नहीं आया कि आपने गतिमें इतना फेर फार कैसे किया, कृपा हो तो जरा तत्त्व बतलाइए ! प्रभु वोले- राजन् ! जब ध्यानास्थ- प्रसन्नचन्द्र अपने मन्त्रियोंसे घमासान - युद्ध कर रहे थे तब रौद्रपरिणामों से उन्होंने सातवीं नरकके कर्म इकट्ठे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन ६४. t कर लिए थे अतः मैंने सातवीं नरक कही थी । लड़ते-लड़ते उन्होंने मन हीसे सारी आयुधशाला खत्म करदी और कोई शस्त्र नहीं रहा, तव शिरस्त्राणका चक्र बनाकर मन्त्रियोंको मारने के लिए सिर पर हाथ डाला, तो वहां केस भी नहीं थे, शिरस्त्राणका तो होना ही क्या था ? मुण्डितशिर को देखते ही मुनि सम्मले एव होश में आकर सोचने लगे । हाय ! हाय ! मैं तो साधु हूं किसका पुत्र और किसका राज्य ! रहे तो क्या और जाए तो क्या । ऐसे सद्ध्यानमें जुड़कर वे क्रमशः नरकोंके बन्धन तोड़ने लगे और सद्गतिके योग्य पुण्योपार्जन करने लगे एवं अब उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त होनेवाला है । वस, बात करते-करते ही देवदुन्दुभि वजने लगी और महोत्सवार्थ देवता भी आने लगे । राजा श्रेणिकने मी राजर्षिके केवल महोत्सव किए 1 1 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग चौवीसर्वा श्रादर्श - क्षमादान सभी कहते हैं कि वैर - जहर बुरा है, किन्तु मौका पड़ने पर शत्रुको क्षमा देनेवाले वीर इने-गिने ही मिलते हैं । 1 f वीतभय नगर मे तापस-भक्त उदायन नामके महाराज थे । दश मुकुटबन्ध राजा उनकी सेवा करते थे और सोलह देश उनके मातहत थे । उनकी पटरानीका नाम प्रभावती था जो भगवान्की परमभक्ता श्राविका थी एवं महाराज चेटककी पुत्री थी । रानीके कारणसे ही महाराज जैनधर्मके प्रति श्रद्धालु बने थे । श्रद्धालु नामके ही नहीं थे बल्कि उन्होंने जैनधर्मका तलस्पर्शीतत्त्व भी समझ लिया था । क्षमादानका अवसर एक वार उज्जयिनीपति महाराज चण्डप्रद्योतनने उदायनकी दासी स्वर्णगुलिकाका अपहरण कर लिया। समझाने पर भी नहीं समझा और बात यहाँ तक बढ़ गई कि बड़ी भारी सेना लेकर ग्रीष्मऋतु में उनको युद्ध करनेके लिए जाना पड़ा। भयंकर युद्ध हुआ | आखिर न्यायीकी जीत हुई । प्रद्योतन पकड़ा गया और मालवदेशमें महाराज उदायनकी सत्ता स्थापित हो गई । इतना ही नहीं, क्रोधवश उन्होंने अपराधीको मम दासीपति ऐसे अक्षरोंके दागसे दागी भी बना दिया तथा उसे वन्दीरूपसे लेकर वे अपने देशको रवाना हुए। मार्ग में संवत्सरी आ गई अतः Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जीवन ६६ वनमें कैंप लगाए गए। धर्मप्रिय महाराज उदायनने उपवासपौषध एवं सांवत्सरिक - प्रतिक्रमण किया । चौरासी लाख जीवयोनिसे खमत - खामना करके फिर चण्डप्रद्योतनसे भी क्षमायाचना करने लगे। तब उसने कहा, आइए- आइए धर्मका दौंग करनेवाले महाराज उदायन ! क्या भगवान्महावीरने आपको यही सिखलाया है कि एक आदमीका सर्वस्व लूटकर उसके आगे ऐसे क्षमायाचनाका स्वांग रचाना १ बस-बस रहने दीजिये जले हुए पर ? नमक लगाना और मुर्दे पर तलवार चलाना ! यह रहस्यभरी उवाणी सुनकर क्षमा-प्रार्थी नरेशकी आंखें खुलीं और प्रयोतनको फौरन मुक्त बनाकर पूर्वरूप में स्थापित कर दिया ! फिर हृदयसे क्षमायाचना करके अपने राज्य में लौट आए। इसीका नाम है आदर्श - क्षमादान । केवल सामैमि सव्वे जीवे बोलनेसे क्या हो सकता है ! Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग पच्चीसवां एक झोंपड़ी बची कह तो हर एक देते हैं कि क्षमा करनी चाहिए, किन्तु अपना अपमान देखकर किसको क्रोध नहीं आता ? स्वार्थभंग होने पर किसकी आँखें लाल नहीं होतीं ? इसी लिए तो कहा गया है क्षमा वीरस्य भूषण धन्य है राजर्षि उदायनको जिन्होंने शान्तभावों से प्राणोंकी बलि चढ़ा दी, लेकिन हत्यारेके प्रति क्रोधको चमकने - तक नहीं दिया । 1 भगवान्का पदार्पण एकदा भगवान् महावीर सात सौ कोसका बिहार करके महाराज उदायनको तारनेके लिए वीतभय- पत्तन पधारे । प्रभुकी सुधावर्षिणी देशना सुनकर चरमशरीरी उदायननरेश संयम लेने को तैयार हो गए। राज्यका अधिकारी यद्यपि उनका प्रियपुत्र श्रमीचकुमार ही था, किन्तु मेरा पुत्र राज्यमें गृद्ध बनकर कहीं नरकगामी न बन जाए, ऐसे सोचकर उन्होंने अपना राज्य पुत्रको नहीं दिया । भानजेको राज्य केशीकुमार नामक भानजेको राज्य देकर महाराज साधु वन गए, योग्यता प्राप्त करके प्रभुकी आज्ञासे वे एकाकी विचरने लगे । एवं मास-मासखमरण की घोरतपस्या करने लगे । तपस्या के कारण उनका शरीर रूखा-सूखा एवं रुग्ण हो गया । ग्रामों Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन-जीवन नगरों में विचरते एकवार वे अपनी जन्मभूमिमे पधार गए । कृतघ्न केशी समाचार सुनते ही कृतघ्न-भानजा चमका। उसके दिलमें शक हो गया कि मामा मेरा राज्य लेने आया है। पापीने गुप्तरूपसे शीघ्र ही प्रतिवन्ध लगा दिया। उसका नतीजा यह निकला कि शहरमे मुनिको ठहरनेके लिए किसी भी स्थान नहीं दिया। दिनभर घूमते-घूमते मुनि संध्या-समय कुम्हारोंकी वस्ती में पहुंचे। वहां कुम्हारीके आग्रहसे कुम्हारने अपनी झोपड़ी दी। विपदान कुम्हारकी झोपड़ी में ठहरकर मुनिराज वैद्योंसे दवा लेकर रोगोंकी प्रतिक्रिया करने लगे, किन्तु दुष्टराजासे यह भी सहन नहीं हुआ अतः दवामें जहर दिलवा दिया। सब बातका पता लगने पर भी राजर्षिने राजा पर विल्कुल क्रोध नहीं किया और समतामें लीन बन कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करके जन्ममरणसे मुक्त हो गए। देवोंका कोप इस अन्यायपूर्ण हत्याको देखकर देव कुपित हुए। उन्होंने भयंकर धूलिकी वृष्टि करके शहरको मिट्टीमे मिला दिया, मात्र वही एक झोपडी खड़ी रही, जिसमे महामुनिका निर्वाण हुआ था। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसङ्ग छन्ataai श्रभीचकुमारका क्रोध बन्धुओं ! परम्परागत रूढ़िके अनुसार यद्यपि आप लोग सबसे खमत खामना करते हैं, किन्तु ध्यान देकर देखिए कि जिनके साथ अनवन है, बोल-चाल बन्द है या कोर्ट में मामला चल रहा है, उनसे क्षमा माँगकर मनको शुद्ध बनाते हैं या नहीं ? यदि नहीं, तो आपके खमत - खामने मात्र दौग हैं ? क्या आप नही जानते कि एक उदायनेसे मनमें द्वेष रखकर अभीचकुमार डूब गया और वैमानिकदेवता बननेके बदले असुरयोनिमे उत्पन्न हो गया ? श्रमीचकुमार महाराज उदायनका पुत्र था । भगवान् महावीरका परम भक्त था एव बारहव्रतधारी श्रावक था, किन्तु महाराजने योग्य होने पर भी अपना राज्य उसको न देकर केशीकुमार मानजेको दे दिया । इससे उसको बहुत दुख हुआ और राजा संयम लेते ही अपने शहरको लोडकर चम्पानगरी चला गया। वहां राजा कुणिक जो इसकी मौसीका पुत्र था, उसके पास रहकर दुःखमय जीवन बिताने लगा । यद्यपि सामायिक - प्रतिक्रमण आदि हररोज करता था, निरतिचार श्रावकत्रत पालता था, हरएकके साथ अच्छे से अच्छा व्यवहार करता था, फिर भी महाराज उदायनके साथ इतना द्वेष था कि उनका नाम आते ही आँखोंसे खून बरसने लग Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जीवन जाता था। मसारके सब जीवोंसे खमत-वामना करता था, लेकिन उदायन नामसे नहीं करता था। ऐसे अनन्तानुवन्धी-क्रोधके कारण वह पूर्वोक्त क्रिया-काण्ड करता हुआ भी मिथ्याष्टि बन गया एवं चिराधक होकर संसारमें भटक गया। सम्पन्न - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखककी अन्य प्रकाशित रचनाएँ हिन्दी | मूल्य प्राप्तिस्थान १. सच्चा वन |३७ न. प. श्री जैन श्वे. ते. सभा, माले कोटला (पञ्जाव ) २ प्रश्न-प्रकाश ७५ न पं. श्री जैन श्वे. ते. महासभा,३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलक्त्ता ३ चमकते चांद ४. ज्ञान-प्रकाश ५ ज्ञानके गीत ३० न. प. १.०० २० श्री जैन श्वे. ते -सभा भीनामर ७५ न.पं. (राजस्थान) ६. एक आदर्श-आत्मा २५ न पै श्री मदनचद-मपतराय बोरड ७ सोलह नतिया- २५० रु० | दुकान न० ४०, धानमण्डी 5 मनोनिग्रह के दो मार्ग, १२५ रु० श्रीगगानगर ( राजस्थान ) ६ लोक प्रकाश १० भजनो की भेंट ११. चौदह नियम | १ २५ २० श्री जैन श्वे. ते. सभा ७५ न प. बालोतरा ( राजस्थान) ६ न.पं श्री जैन श्वे. ते. सभा, गगाशहर ( राजस्थान) संस्कृत १२. गरिणगुणगीतिनवकम् गुजराती १३ तेरापन्य एटले शु? Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + १४ धर्म एटले शु? १५ परीक्षक वनो । उर्दू १६ जीवन- प्रकाश संस्कृत १ देवगुरधर्म - द्वात्रिशिका २ प्रास्ताविक श्लोकशतकम् मूल्य ६२ न. पै. ३ एकाह्निक- श्री कालुशतकम् ४ श्रीकालुगुरगा प्टकम् ५ श्रीकालुकल्याणमन्दिरम् ६. भाविनो ७५ न, दे. लेखक की अप्रकाशित रचनाएँ ७ ऐक्यम् ८. श्री भिक्षुशब्दानुशासनलघुवृत्तितद्धितप्रकरणम् गुजराती ६ गुर्जरभजनपुष्पावलि १०. गुर्जर व्याख्यान रत्नावलि हिन्दी ११. वैदिकविचारविमर्शन १२ मक्षिप्त वै दिविचारविमर्शन १३. अवधान - विधि १४. संस्कृत बोलनेवा मरल तरीका प्राप्तिस्थान नेमीचन्द - नगीनचन्द जवेरी । 7 चन्द्रमहल १३०, कोसमोमन स्ट्रीट, बबई- २ श्री जैन श्वे ते सभा नाभा ( पञ्जाब ) १५. दोहा-सदोह १६. व्याख्यानमरिणमाला 1 १७. व्याख्यान रत्नमञ्जूषा १८. जैनमहाभारत आदि बीन व्याख्यान १६ उपदेशसुमनमाला २० उपदेश द्विपञ्चाशिका राजस्थानी २१. धनवावनी २२. सवैयाशतक २३. औपदेशिक ढालें २४. प्रास्ताविक ढाले २५ कथाप्रवन्ध २६. छ. बडे व्याख्यान २७ ग्यारह छोटे व्याख्यान २८. सावधानी से समुद्र } पञ्जाबी २६. पञ्जाव पच्चीसी M f 1 ' Page #115 --------------------------------------------------------------------------  Page #116 --------------------------------------------------------------------------  Page #117 -------------------------------------------------------------------------- _