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________________ प्रसङ्ग सातवां मल्लिकुमारीकी युक्ति मिथिलापति घबरा गए और चिन्तासमुद्र में गोते लगाने लगे, क्योंकि पुत्री तो किसी भी तरह विवाह करनेको तैयार नहीं थी और छहों नरेशोंसे युद्ध करनेकी खुदके पास शक्ति नहीं थी। कुमारी ने पिताजीको सान्त्वना दी और राजाओंसे कहलवा भेजा कि आप लोग उत्तावल न करे, हर एक काम शान्तिसे सम्पन्न होता है। मै आपसे अमुक दिन मिलूगी और अपने विवाह के विपयमें बातचीत करुंगी। ऐसे छहों नरेशोंको शान्त बनाकर मल्लिकुमारीने शीघ्रातिशीघ्र एक मनोहर मोहनशाला बनवाई और उसमे ठीक अपने ही जैसी पुतली स्थापित की। पुतली अन्दरसे बिल्कुल पोली थी एव उसके मस्तक पर एक द्वार था। कन्या हर रोज़ भोजनका एक ग्रास उसमें डाला करती थी। ज्योंही वह भर गई, अच्छी तरह ढक्कन लगा कर उसे अनेक दिव्य-वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित कर दिया और यथोचित व्यवस्था करके छहों मेहमानोंको आमन्त्रण दे दिया। ___ मोहनशालामें मेहमान वेचारे आमन्त्रणकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे, तुरन्त आए और पुतलीको सच्ची मल्लिकुमारी समझकर स्तब्धसे होकर :: दांतोंमें अंगुलियां धरने लगे। इतनेमें अद्भुत रूपछटा फैलाती हुई ३ कुमारी वहां आई। आतेही उन नरेशोंकी आंखें खुलीं। अरे! रे। हम तो भूल ही गये, ऐसे कहकर वे विस्मित नेत्रोंसे कुमारीकी
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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