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________________ प्रसङ्ग पन्द्रहवां भगवान पाश्वनाथ थोड़ी-सी सेवा करनेवाले पर प्रेम और थोड़ा-सा कण्ट देनेवाले पर कैपका होना प्राणीमात्र लिए स्वामाविक-सा ही है। ऐसे आदर्शपुनप तो पार्श्वनाथ भगवान् जैसे कोई विरले ही मिलेंगे जिन्होंने प्राण बचानेवाले नागराज-धरणेन्द्रको 'पौर मरणान्तउपसर्ग करनेवाले फाठदेनको एक ही दृष्टिसे देसा। श्राजसे लग-मग उनत्तीस-मी वर्ष पूर्व तेईसये तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथने नाणारसी नगरीमेंराजा अश्वमेनकी महारानीश्री वानावाशी सुतिसे जन्म लिया था और उनका विवाह राजा प्रस मन्दिा सुपुत्री प्रभावतीने हुधा था। एक दिन हजारों नगर निवासियों को एक ही तरफ जाते देखफर उन्दोंने अपने सेयकसे उसका कारण पूछा। उसने कहा- कमठ नामका एक यदा मारी उपस्वी प्रागा है, यह शहरके बादर पंचाग्निसाधना कर रहा है-ये सब लोग उसीके दर्शनार्थ जा रहे हैं। श्री पार्वयुमार मी युल-एक मिनों, साथ वहां पधारे और उससी हिंसात्मक साधना दबकर बोल- अरे हिंसाप्रिय उपत्यी-काठ ! पर्मका मूल अरिमा और तू धर्मक नामसे महादिना कर रहा है। देव ! तेरे इगतपस्या साधनमृत लकडमें एक विशालकाय नाग-नागिन का जोड़ा चल रहा है, जिनका तुमे नोट-कई मयार एक गाग हो या और मरम उमा परन्न होना मागत है। JHM A RA - Mar - -
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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