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प्रसङ्ग आठवां विवाह नहीं किया
(भगवान् अरिष्टनेमि) "सब लोग जीना चाहते हैं कोई भी मरना नहीं चाहता अतः किसीको मत मारो।" यह शाखंबाणी हरएक प्राणी पढ़ते है। किन्तु भगवान् अरिष्टनेमि ने इसे क्रियात्मकरूप मे परिणत करके दिखलाया एव दयामावसे प्रेरित होकर विवाह-मण्डपके पास आ कर भी विवाह विना किये ज्यों के त्यों वापस लौट गए।
सौरिपुर नगरके यदुवशीय राजा समुद्रविजयकी महारानी शिवादेवीकी कुक्षिसे श्रावण शुक्ला छठको प्रभुका शुभ जन्म हुत्रा था। श्रीकृष्ण उनके चचेरे बडे भाई थे। जरासन्ध राजाके डरसे सारे ही यादव सौराष्ट्र देशमें चले गये और वहां द्वारकानगरी बसाकर श्रीकृष्णके आधिपत्यमें रहने लगे एवं श्रीनेमिकुमार क्रमशः वृद्धि पाने लगे।
द्वारकामें हलचल एक दिन मित्रोंके साथ क्रीड़ा करते हुए वे आयुधशालामें पहुंचे और खेल ही खेलमे श्रीकृष्णके दिव्यशंख को उठाकर जोर से वजा दिया। शंखकी प्रचण्डआवाजसे सारी द्वारकामे हलचल मच गई। इस अनूठे पराक्रमको “देखकर श्रीकृष्ण उनसे पाणिग्रहण करनेका आग्रह करने लगे। प्रभुने काफी आना-कानी की, लेकिन सभी तरहसे इतना दवाव डाला गया जिससे अन्तमे उनको मौनी ही बनना पड़ा और विवाहकी कार्रवाई चालू कर