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________________ २५ प्रसङ्ग नौवां साध्वीसंघके साथ प्रभुके दर्शनार्थ गिरनार पर्वत जारही थी। अचानक जोरसे वर्षा आगई। साध्वियों इधर-उधर जहाँ भी स्थान मिला, खड़ी रहगई एवं राजीमती एक गुफामें जाकर अपने वस्त्र निचोड़कर सुखाने लगी, किन्तु उसको पता नहीं था कि अन्दर रथनेमिमुनि ध्यान कररहे हैं। अचानक विजली चमकी और मुनिने एकान्तमै राजीमतीका अदभुत रूप देखा। . मन विचल गया मुनिका मन विचल गया। वे मुनिपदका भान भूलकर भोगकी प्रार्थना करने लगे। महासती चमकी एवं शीघ्र ही वस्त्रोंसे अपने तनको ढांककर अलौकिक साहसमरी वाणीसे कहने लगीमुने ! आप कौन हैं, आपका कुल कितना पवित्र है, किस वैराग्यसे आपने दीक्षा ली है, क्या आप सब कुछ भूल गये ? जो ऐसी घृणित बात कररहे हैं। मैं त्यागे हुए मोगोंको सपनेमे भी नहीं चाहती आप तो क्या, साक्षात् कुवेर, इन्द्र और कामदेव भी आ जाएं तो मी मै परवाह नहीं करती। आप लाख-लाख धिक्कारके अधिकारी हैं, जो मुनिवेषको लजा रहे हैं। मुनि होशमें आये महासतीके वाक्योंसे मुनि होशमें आए और भगवान्के चरणोंमे अपनी दुष्प्रवृत्तिका प्रायश्चित्त करके जन्ममरणसे मुक्त ' हुए। महासती राजीमतीने भी शुद्ध संयम पालकर केवलज्ञान , प्राप्त किया एवं भगवान् अरिष्टनेमिसे चौवन दिन पहले सिद्धहै गतिको प्राप्त हुई।
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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