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जैन-जीवन
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कर लिए थे अतः मैंने सातवीं नरक कही थी । लड़ते-लड़ते उन्होंने मन हीसे सारी आयुधशाला खत्म करदी और कोई शस्त्र नहीं रहा, तव शिरस्त्राणका चक्र बनाकर मन्त्रियोंको मारने के लिए सिर पर हाथ डाला, तो वहां केस भी नहीं थे, शिरस्त्राणका तो होना ही क्या था ? मुण्डितशिर को देखते ही मुनि सम्मले एव होश में आकर सोचने लगे । हाय ! हाय ! मैं तो साधु हूं किसका पुत्र और किसका राज्य ! रहे तो क्या और जाए तो क्या । ऐसे सद्ध्यानमें जुड़कर वे क्रमशः नरकोंके बन्धन तोड़ने लगे और सद्गतिके योग्य पुण्योपार्जन करने लगे एवं अब उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त होनेवाला है । वस, बात करते-करते ही देवदुन्दुभि वजने लगी और महोत्सवार्थ देवता भी आने लगे । राजा श्रेणिकने मी राजर्षिके केवल महोत्सव किए 1
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