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प्रसङ्ग तेईसवां
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है । क्योंकि सारा मन्त्रिमण्डल ही बदल गया है अतः अब तेरे पुत्रको राज्यभ्रष्ट कर देगा । वस, ऐसे सुनते ही राजर्षि भान भूलकर मन ही मन मन्त्रियोंसे घोरयुद्ध करने लगे । क्या गति होगी ?
राजा श्रेणिकने भी ध्यानस्थ मुनिको सिर झुकाकर फिर प्रभुके दर्शन किए और पूछा- भगवन् ! घोरतपस्या करनेवाले राजर्षि - प्रसन्नचन्द्रकी क्या गति होगी ? प्रभु बोले- यदि इस समय आयुष्य पूर्ण करें तो सातवीं नरकमे जाएँ । क्या सातवीं नरक ? नहीं ! नहीं ! अब छट्ठी नरक । राजाके दिलमें आश्चर्यका पार नहीं रहा अतः बार-बार यही सवाल करने लगा और प्रभु पांचवीं, चौथी यावत् एक-एक नरक घटाने लगे तथा फिर तिर्यब्व, मनुष्य, व्यन्तर, भवनपति, ज्योतिषी एव प्रथमस्वर्ग बताने लगे । ज्यों-ज्यों प्रश्न होता, एक-एक स्वर्ग बढ़ जाता । अन्तमे प्रभुने फरमाया कि इस समय यदि राजर्षिकी मृत्यु हो तो छब्बीसवें स्वर्ग जाएँ ।
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गतिमें इतना फेर - फार कैसे ?
आश्चर्यचकित राजा श्रेणिकने पूछा- प्रभो ! कुछ समझ में नहीं आया कि आपने गतिमें इतना फेर फार कैसे किया, कृपा हो तो जरा तत्त्व बतलाइए ! प्रभु वोले- राजन् ! जब ध्यानास्थ- प्रसन्नचन्द्र अपने मन्त्रियोंसे घमासान - युद्ध कर रहे थे तब रौद्रपरिणामों से उन्होंने सातवीं नरकके कर्म इकट्ठे