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________________ प्रसङ्ग दसवां ३१ जन भी शामिल थे।) कृष्णने इस समय धर्मदलालीका वड़ा भारी लाभ उठाया। भवितव्यता नहीं टलती एक दिन यादवकुमार क्रीड़ा करने बनमें गये और मदिरा पीकर उन्मत्त हो गये। शहरमे आते समय द्वौपायन-ऋषिको तपस्या करते देख कर बोले-अरे मारो-मारो! यही है अपने शहरका नाश करनेवाला । वस, फौरन धक्काधूम करने लगे और ऋपिको नीचे पटककर कांटोंमे खूब घसीटा एव अनेक दुर्वचन सुनाए । क्रुद्ध होकर ऋषिने द्वारकादहन का संकल्प कर लिया। पता पाकर कृष्ण-बलमद्रने आकर वहुत अनुनय-विनय की। ऋपिने आखिर मात्र उन दोनों भाईयोंको छोड़नेका वचन दिया और वे रोते-रोते हार कर घर आ गए। द्वारकादहन इधर द्वैपायन-ऋषि प्राणत्याग कर अग्निकुमार देवता बना। ज्ञानसे पूर्ववर का स्मरण करके द्वारकाको भस्म करने आया, किन्तु आयंबिल-उपवासादि तपस्याके प्रभाव से उसका बल न चला। छिद्र देखते-देखते बारह वर्प वीत गये । भावीवश लोगोंने * तपस्या को विल्कुल छोड़ दिया एव शत्रुदेवको मौका मिल गया। , वह मीषण आग बरसाने लगा, जिससे शहर स्वाहा होने लगा 1 और हा-हा की प्रवल ध्वनि पसरने लगी। उस समय कोई के किसीकी रक्षा करने में समर्थ नहीं था।
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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