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जैन-जीवन
नगरों में विचरते एकवार वे अपनी जन्मभूमिमे पधार गए ।
कृतघ्न केशी समाचार सुनते ही कृतघ्न-भानजा चमका। उसके दिलमें शक हो गया कि मामा मेरा राज्य लेने आया है। पापीने गुप्तरूपसे शीघ्र ही प्रतिवन्ध लगा दिया। उसका नतीजा यह निकला कि शहरमे मुनिको ठहरनेके लिए किसी भी स्थान नहीं दिया। दिनभर घूमते-घूमते मुनि संध्या-समय कुम्हारोंकी वस्ती में पहुंचे। वहां कुम्हारीके आग्रहसे कुम्हारने अपनी झोपड़ी दी।
विपदान कुम्हारकी झोपड़ी में ठहरकर मुनिराज वैद्योंसे दवा लेकर रोगोंकी प्रतिक्रिया करने लगे, किन्तु दुष्टराजासे यह भी सहन नहीं हुआ अतः दवामें जहर दिलवा दिया। सब बातका पता लगने पर भी राजर्षिने राजा पर विल्कुल क्रोध नहीं किया और समतामें लीन बन कर अपनी जीवन-लीला समाप्त करके जन्ममरणसे मुक्त हो गए।
देवोंका कोप इस अन्यायपूर्ण हत्याको देखकर देव कुपित हुए। उन्होंने भयंकर धूलिकी वृष्टि करके शहरको मिट्टीमे मिला दिया, मात्र वही एक झोपडी खड़ी रही, जिसमे महामुनिका निर्वाण हुआ था।