SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रसङ्ग छठा महाराज! आत्माकी तो वीमारी आप जसे महापुरुष ही मिटा सकते है, हम तो मात्र शरीरकी ही बीमारी मिटाते हैं। यह सुनते ही राजर्पि ने अपने थूकसे एक अंगुली भेरकर सडे हुए शरीर पर लगाई। बस, लगानेकी ही देरी थी, जितनी दूर मे थूक लगा। शरीर कंचन-वर्ण होगया और देवता देखते ही रह गये। ऋपि बोले, भाई! तनकी वीमारी मिटाने में क्या बढ़ी बात है ? बड़ी बात तो मनकी बीमारी मिटानेमे है, अतः ध्यान एव तपस्या द्वारा इसीका इलाज कररहा हूँ। धन्य धन्य कहते हुए देवता प्रकट हो गये और मुक्त कंठोंसे मुनिके गुनगान करते हुए स्वस्थान चले गये। मुनिने एक लाख वर्ष संयम पाला और अन्तमे केवलज्ञान पाकर परमपदको प्राप्त हुए। ऐसे-उत्तम पुरुपोंके स्मरण मात्रसे निःसन्देह आत्मकल्याण होता है।
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy