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________________ न जीवन लगे- अरे! अमी क्या देखरहे हो, जप में सज-धज कर समामें अब देखना । व्यवस्थित स्थानमें नाम ठहरे और उधर महा राजने नहा धोकर मदाकी अपेक्षा कुछ विशेष शृंगार किए एवं वे राजसमामे विराजमान हुए। रूप बिगड़ गया ब्रामण आए, किन्तु स्प देसकर नाक सिकोड़ते हुए कहने लगेमहाराज! रूप तो विगढ़ गया। चिगढ़ क्या गया, "प्रापके शरीरमे की भी पद गये। देखिए, पीकदानीमे जरा-सा थूक कर । साश्चर्य चक्रवर्ती ने शुक्कर देखा तो पान मही थी। बन, रंगमे भंग हो गया और साराही खेल बदल गया। चक्रवर्तीने उमीक्षण राज्य वैभव को त्याग दिया एवं साधु बनकर अपने सुकुमार शरीरको तीव्रतपस्या में लगा दिया । रोग दिन-परदिन पटते गचे, अन्तमे गलितकुष्ट होकर सारा शरीर सड़ गया। फिर मी मुनिने बिल्कुल दवा नहीं की और मेस्वत् बड़ोल रहकर ध्यान एवं तपस्या में ही लीन यने रहे। पुनः प्रशंसा राजपिके अद्भुत धैर्यको देखकर इन्द्रने देव ममा पुनःकहामाधु संमारमे एप से पदते चढ़ते हैं, लेकिन महर्पि-सनत्कुमार जैसे दवजित और धैर्यवान मुनि आज दूसरे कोई नहीं है। लगमग मात-सी योंसे घोर-पीडा सहन कर रहे हैं, फिर भी कई दया नहीं करते। अरे! दवा तो कर ही क्या, दवा करने का मन भी नहीं शरते। पहलेवाले वे ही दो देवता परीक्षार्थ यद्यरूपसे उपस्थित हो कर प्रार्थना करने लगे-प्रमो! कृपया हमारी औषधि लीजिए एवं बीमारी का प्रतिकार करके इस शरीरको स्वस्थ कीजिए। दो-तीन पार विनति करने पर ध्यान बोलकर मुनि बोले। माई ! तुम शरीर ही बीमारी मिटाते हो या आत्मासी मी मिटा सकते हो ? यधयोले
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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