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________________ जैन - जीवन ६६ वनमें कैंप लगाए गए। धर्मप्रिय महाराज उदायनने उपवासपौषध एवं सांवत्सरिक - प्रतिक्रमण किया । चौरासी लाख जीवयोनिसे खमत - खामना करके फिर चण्डप्रद्योतनसे भी क्षमायाचना करने लगे। तब उसने कहा, आइए- आइए धर्मका दौंग करनेवाले महाराज उदायन ! क्या भगवान्महावीरने आपको यही सिखलाया है कि एक आदमीका सर्वस्व लूटकर उसके आगे ऐसे क्षमायाचनाका स्वांग रचाना १ बस-बस रहने दीजिये जले हुए पर ? नमक लगाना और मुर्दे पर तलवार चलाना ! यह रहस्यभरी उवाणी सुनकर क्षमा-प्रार्थी नरेशकी आंखें खुलीं और प्रयोतनको फौरन मुक्त बनाकर पूर्वरूप में स्थापित कर दिया ! फिर हृदयसे क्षमायाचना करके अपने राज्य में लौट आए। इसीका नाम है आदर्श - क्षमादान । केवल सामैमि सव्वे जीवे बोलनेसे क्या हो सकता है !
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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