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________________ प्रसङ्ग ग्यारहवां देवकीके उदरसे सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। महोत्सव करके गजसुकुमाल नाम रखा। माता उसको लाड़ लड़ा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करने लगी। कुमार पढ़-लिखकर क्रमशः यौवनमें आए । श्रीकृष्ण उनके लिए सुन्दर कन्याएँ इकट्ठी करने लगे एवं विवाहकी तैयारियां होने लगीं। इधर अचानक भगवान् अरिष्टनेमिका पदार्पण हुआ। कृष्ण दर्शनार्थ गये। लघुभ्राता भी साथ हो गये । हरिने देव वाणीका स्मरण करके उन्हें रोकना तो चाहा, लेकिन वे नहीं रुके और प्रभुके समवसरणमें उपस्थित हो गये। वैराग्य प्रभुने ज्ञानका ऐसा मेघ बरसाया, जिससे गजसुकुमाल तो संसारसे उद्विग्न होकर दीक्षा लेनेको तैयार ही हो गये । दीक्षाकी बात सुनकर यादव-परिवार में कोलाहल मच गया। माता वेहोश हो गई। श्रीकृष्णने बहुत-बहुत कहा, किन्तु कुमार तो टससेमस भी नहीं हुए। आखिर माता देवकीने आज्ञा दी और बड़ी धूमधामसे गजसुकुमालने नेमि प्रभुके पास दीक्षा स्वीकार की। श्मशानमें ध्यान दीक्षा लेते ही गजमुनिने प्रभुसे मुक्तिका सीधेसे सीधा रास्ता पूछा, तव प्रभुने श्मशानमें ध्यान करनेके लिए कहा । एवमस्तु कहकर मुनि उसी वक्त श्मशानमें जाकर आत्मध्यानमें रमण करने लगे। संध्याके समय सोमिल ब्राह्मण (जिसकी कन्या इनके विवाहार्थ रखी हुई थी) उधरसे आ निकला। मुनिको
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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