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जैन-जीवन देवताने उनको मृतवत्मा मुलसाके यहां रख दिया था और मुलसाके मृतपुत्र तेरे पास रख दिए थे । अतः कंसने जो मारे थे, वे पहलेसे मरे हुए ही थे। देवकीके मनमे अव तो हर्पका पार ही न रहा। पुनोंके दर्शन कि, उस समय उसके स्तनोंम से दुधकी धारा निकल पड़ी।
चिन्तातुर देवकी दर्शन करके देवकी घर तो या गई, लेकिन चित्तमें चैन । नहीं रहा । पुत्रोंकी वाल्यलीला देखने के लिए उसका दिल तदफने लगा एवं यह चिन्ताके समुद्र में दुबकियों लगाने लगी। श्रीकृष्ण दर्शनार्थ आए और चिन्ताका कारण पूदने लगे। तब सारी बात सुनाकर माताने कहा-वत्स ! कुतियों, चिल्लियां और चिड़ियां भी अपने बच्चोंका लाद-प्यार करती हैं, किन्तु मैं तो उनसे भी निम्न श्रेणी में हूँ. जो सात-सात पुत्रोंको जन्म देकर मी उनकी पाल्बलीला नहीं देख सकी। धिक्कार है मेरे नात-जीवनको । बेटा हुन्बसे कलेजा फटा जा रहा है, पर क्या फर ! फाँके मागे कोई जोर नहीं चलता!
देवाराधन श्रीमाने मानाको सान्चना दी और तेला करके देवता. का स्मरण किया। यह प्रकट हुश्रा। श्रीकृष्णने लोटे माईकी नाचनाही, नव देवताने करा- कि माई तो हो जाएगा, पर परमें नहीं रहेगा से कह कर देवमा अन्नधान होगया और श्रीकरण ने सुगमवर सुनाकर माता को सन्तुष्ट किया। कुछ समयके बाद