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________________ प्रसङ्ग सोलहवां - काया पृथक्-पृथक हैं। राजा मुनिके पास गया, किन्तु हाथ बिना जोड़े ही = आत्मा-विषयक प्रश्न करने लगा। मुनि बोले-राजन् । विनय बिना ज्ञान नहीं आता । तूने बाहर तो हमें जड़-मूद-मूर्ख कहा और यहां आकर असभ्यतासे प्रश्न पूछ रहा है अतः तू हमारी जकातका चोर है। विस्मित नरेशने पूछा-महाराज । आपको मेरे कहे हुए अपशब्दोंका पता कैसे चला ? मुनि बोले-मेरे पास चार ज्ञान हैं । राजा बहुत प्रभावित हुआ और मान गया कि ये सच्चे ज्ञानी हैं तथा इनका धर्म वास्तविक है, फिर भी जिज्ञासाके लिए - कई प्रश्न किए। = १. राजा- यदि नरक है, तो मेरा दादा बहुत पापी था। अतः अवश्य नरकमें गया होगा, अब वतलाइये, वह मुझे आकर क्यों नहीं कहता कि पोता ! धर्म कर ? गुरु- जैसे तेरी रानीसे व्यभिचार करनेवालेको स्वजनोंसे मिलनेके लिए तू थोड़ी भी छुट्टी नहीं देता, वैसे ही तेरे पापी दादेको यम यहां नहीं आने देते। २. राजा- मेरी दादी धर्मात्मा थी अतः स्वर्गमे गई होगी, वह तो आकर कह सकती है? ___ गुरु- मनुष्यलोककी दुर्गन्धिके कारण नहीं आती। _ ३. राजा-- मैने चोरको मारकर कोठीमें रखकर बन्द कर दिया। समयानन्तर देखा तो उसमें कीड़े पड़ गये। वे कहांसे घुसे, कोठीमें छिद्र तो हुए नहीं ? गुरु- लोहेमे अग्निकायके रूपी शरीर घुसने पर भी छिद्र नहीं
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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