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प्रसङ्ग तीसरा
मुट्ठी कहाँ की कहाँ (बाहुवलि)
कामको जीतना जितना महत्व रखता है; उनना
वृद्ध अवस्थामें नहीं रखता। धन स्वजन, एवं विजय के सद्भावने साधु चनना जितना सुटिकल कहनाता है, इनसब ची के अभाव में साधु बनना उतना मुश्किल नहीं कहा जा सकता । हारकर तो हर एक घर से निकल पाता है, परन्तु जीतकर त्याग करने वाले महापुरुष तो बाहुबलि जैसे विरले ही होंगे।
भगवन नामदेव के सौ पुत्र थे । उनमें भरत और बाहुबलि दो मुख्य थे। प्रभुने गरतको श्रग्नी गडी ढी, बाहुबलि को तक्षशिला का राज्य दिया और शेष पुत्रोंको भी यथायोग्य कुछ देकर स्वयं माधु यन गये ।
भरत चर्ती थे, प्रतः उन्होंने सारे भरतक्षेत्र में अपनी ना स्थापित की। प्रट्टानत्रे माइयोंने भरत की सत्ताको स्वीकार न करके प्रभु के पास दीक्षा ले ली। जब बाहुबलिको घाना माननेके लिये गया तो वे नहीं माने। तन दोनों भाइयोंका चारह साल तक संग्राम हुआ। न्यून की नदियों वह चलीं, फिर भी कोई निपटार नीं हो सका |
पांच युद्ध
मानव सृष्टि प्रारम्भ में ही ऐसा प्रलय देखकर देवता वीचमें पदे और दोनोंको त्यो समकार निम्न लिखित, पाच युद्ध निश्चित किये |