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________________ प्रसङ्ग उन्नीसवां पीटती वह अपने स्थान चली गई। फिर भी क्रोध नहीं किया इतनेमें एक धनावा सेठ आया उसने चन्दनवालाको बीस लाख में खरीदा। ज्योंही बालिका घर आई मूला सेठानीके आग लग गई और सैनिककी स्त्रीके समान वह भी क्लेश करने लगी। एक दिन सेठ कार्यवश कहीं बाहर गांव गया था। पीछेसे मौका पाकर सेठानीने घरके द्वार बन्द करके वालिकाका सिर मुंड दिया, वस्त्राभूपण खुलवा लिए, हाथों और पैरोंमें हथकड़ियां और वेड़ियां.पहनादी और घसीटकर एक कोठेमें बन्द करके खुद अपने पीहर चली गई। सतीने माता पर फिर भी क्रोध नहीं किया वह परम-शान्तभावसे प्रभुका स्मरण करती रही। चौथे दिन सेठ आया। घर में सुनसान देखकर वह घवराया एवं वेटी! वेटी' कहकर चिल्लाने लगा। कोठा खोलकर ज्योंही चन्दनाको देखा, बेहोश होकर बुरी तरहसे रोने लगा। सत्तीने सान्त्वना देते हुए कहा-पिताजी! मै तीन दिनसे भूखी हू अतः कुछ खाना तो दीजिए, रोनेसे क्या होगा! सेठने इधरउधर देखा तो मात्र तीन दिनके रांधे हुए उड़दोंके बाकुले मिले। कोई वर्तन भी नहीं पाया अतः छाजके कोनेमे उन्हें डालकर चन्दनाको दिया और स्वयं हथकड़ी-बड़ी कटवानेके लिए लोहारको लेने गया। अभिग्रह उस समय भगवान महावीरने तेरह वातोंका महान् अभि
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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