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________________ जैन जीयन "प्रानन्द मे है। जब वे यहाँ पधार तप आप देखना उन के ठाट-बाट। पुन के समाचार सुन कर माताजी के हर्ष का पार नहीं रहा । समयानन्तर भगवान वहाँ पधारे, समवसरण की रचना हुई एव उन्द्र श्रादि देवता दर्शनार्थ । भरतजी ने दादीजी को भगवान के पधारने की बधाई दी। माता मरुदेवी ने मंगलगान शुरू करवाए एवं भरत 'प्रादि पोते, पड़ोते, लड़पोते तथा उनकी पत्नियों एवं अनेक दाम-दासियों के परिवार से वह हाथी पर चढ़ कर भगवान के दर्शनार्य चल पड़ी। उपालम्भ दूर से ज्यों ही माताजी ने पुत्र के दर्शन किए, वह मोह में मग्न होकर ऐसे उलाहना देने लगी। घरे बेटा तो तेरे लिए दिनरातरी रही थी किन्तु तं तो मुझे कभी याद ही नहीं करना, एक चार पांगुल की चिट्ठी लिखने की भी तुमे फुर्सत नहीं मिलती। येटा तू तो मुख मै मों को ही भूल गया। हां! हां ! भूलना ही था। तुझे मेरी क्या गज । मिर पर तेरे तीन छन्न हैं, चामर वीजे जा रहे है. ऊपर अशोकवच है. बैठने के लिए स्फटिकसिंहासन है और उन्द्रइन्द्रागी हाथ जोड़ कर तेरी सेवा कर रहे है। अब मां की याद आए मी तो कैसे ! केवलजान मेमो, विलाप करते-करते ही विचार बदले और सोचने लगी किने नो नीनराग भगवान है उनके च्या मां और क्या बेटा। मै व्यर्थ की मोट मे पागल हो रही । यम, माताजी क्षपक-श्रेणी चढ़ गई और यही हाली पर बैठी--बैठी फेवलज्ञान पा कर मोक्ष पधार
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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