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प्रसङ्ग बारहवां लड्डुओं के साथ कर्मोका चूरन हंसते-हंसते वेपरवाहीसे कर्मोका कर्ज कर तो हरएक लेते हैं, लेकिन उसको सहर्ष चुकानेवाले साहूकार, तो ढढणमुनि जैसे कोई एक ही होंगे।
अजब अभिग्रह - महाराज कृष्णके ढढणा नामकी एक रानी थी और उसके पुत्र थे श्री ढढणकुमार । भगवान् अरिष्टनेमिका उपदेश सुनकर उन्होंने दीक्षा ले ली और ऐसा विचित्र-अभिग्रह किया कि मैं दूसरोंका लाया हुआ आहार नहीं करूँगा और मेरा लाया हुआ मी मेरे लिए वही भोज्य होगा, जो मेरी लब्धिसे मिलेगा।
ढंढणमुनि भगवान के साथ ग्रामों-नगरोंमें विचरते और प्रतिदिन गोचरी जाते, लेकिन शुद्ध-आहारका संयोग नहीं मिलता । कहीं दरवाजा बन्द मिलता, तो कहीं रसोई बन्द मिलती। कहीं रसोई बनी हुई नहीं मिलती, तो कहीं रसोई उठी हुई मिलती। कहीं स्त्रियोंके सिर पर पानीका घड़ा मिलता, तो कहीं कोई स्त्री सब्जी बनाती हुई मिलती। कोई बच्चोंको स्तन्य पिलाती मिलती, तो कोई वच्चोंको नहलाती मिलती तथा कोई रोटी देते समय फूंक मार देती, तो किसीके सचित्तका संघट्टा हो जाता। इस प्रकार किसी न किसी तरह ढंढणमुनिको भिक्षा + मिलनेमें अड़चन लग ही जाती। फिर भी मुनिके चेहरे पर उदासीनता या खिन्नताका निशान तक नहीं मिलता एवं वे हर समय प्रसन्नवदन ही दिखाई देते थे।