________________
जैन-जीयन श्री हरिका सवाल एकदा अरिष्टनेमिमगवान् द्वारका पाए, श्री हरि दर्श नार्थ गगे और वाणी सुनकर पूछा कि अठारह हजार साधु-प्रोंमें सर्वोत्कृष्ट कौन है। प्रभु बोले-ठंढणमुनि सर्वोत्कृष्ट है । छ: महीनोंसे उसने पानी तक नहीं पीया और आज उमको केवलज्ञान होनेवाला है। यह तुझे जाते समय रास्तेमें ही मिल जायगा। वस, महाराज कम्ण चले एवं मिक्षार्थ फिरते हुए ढंढणमुनि उन्हें मिले । कृष्णने सवारी छोड़कर उन्हें सविधि वन्दना की। यह देखकर एक सेठने उनको बुलाकर मिक्षामें लइ, दिए और मुनि लेकर प्रभुके पास भाग।
प्रभु बोले-वत्स ! ये लद कृष्णकी लब्धिके है क्योंकि कृमाको बन्दना करते देखकर ही सेठने तुझे दिए थे, इसलिए तेरे अमोय हैं। मुनिने पूछा-प्रमो! मैने ऐसे क्या कर्म किए, थे. जो मुझे शुद्धयाहार नहीं मिलता ? प्रभुने कहा-तू पिछले जन्ममें एक बना जमींदार था । तेरे पांच सौ हल और हजार चल थे । एक दिन सानेका समय होने पर भी तूने उन्हें नहीं लोदा अतः उनक भोजनका पिच्छेद होनेसे तेरे अन्तरायकर्म बंध गया। कम समय तमे वही कम फल दिपला रहा है। प्रमुफी आमा लेकर मुनि कही ईटोंक मटेंमें लद परटने गए।
और लक्षुओंको चरने-चूरते शुक्ल यानसे उन्होंने कर्मोको मी घर दिया एवं केवलान पासर जन्म-मरणासे मुल हो गये। धन्य उनले धेको शोर्यको और दानतिजत्वको ।