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________________ प्रसङ्ग बीसवां शकरकंदकी तरह सिक गया और उसके कारण आप छः मास तक उपदेश नहीं कर सके । लेकिन इतना कुछ होने पर भी शरीर वज्रमय था अतः वह तेज उसके अन्दर नहीं घुस सका और लौटकर अपने मालिक गोशालकके ही शरीरमे जा घुसा। उसके शरीरमें आग-अाग लग गई, वह विभ्रान्त-सा हो गया, साधुओंके पूछे हुए प्रश्नोंका कुछ भी जवाब नहीं दे सका और चुप-चाप अपने स्थानको लौट गया । अपने धर्माचार्यकी यह दशा देखकर उसके अनेक शिष्य उसे झूठा समझकर भगवान्की शरणमें आ गए। भावमा बदल गई गोशालक मनमें तो जान ही रहा था कि भगवान् सच्चे हैं और मै झूठा हूँ। लेकिन शिष्योंके चले जानेसे तथा शरीरमे दाह लगनेसे अब उसकी भावना और भी बदल गई। वह अपने किए हुए काले कारनामोंका स्मरण करता हुआ रो पड़ा और अन्तमे अपने मुख्य श्रावकोंको बुलाकर कहने लगा कि सच्चे सर्वज्ञ भगवान् तो प्रभु महावीर ही हैं । मैने तुम्हें जो कुछ समझाया था वह असत्य है । हाय । मिथ्याप्रचार करके मैने बहुत बड़ा पाप किया है। अव मेरी जीवनवाती शीघ्र ही बुझने वाली है। उक्तकार्य अवश्य करना ! मृत्युके बाद मरेहुए कुत्तेकी तरह मुझे सारे शहर में
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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