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________________ न जीवन मर्यादाका भंग हारका दुख न मह मरने के कारण भरतने अपनी मर्यादाका भग करके यापलिको मारने के लिये चक्र चलाया, लेकिन दिव्यचमने उन चध नहीं किया प्रत्युत उन्हे प्रणाम करके लोट याया। यह देखकर बाहपलिके कोधका पारावार नहीं रहा और वे विकराल कालरूप बन कर मुष्टि घुमाते हुए मरतको मारने चले। देवोंने पर पक कर उन्हें शान्त किया, तब वे बोले-मेरी गुष्टि खाली नहीं जा सकती। लो। मरत के सिरके पदले में उसे 'अपनेही सिर पर रग्यता हूँ। ऐसे कहकर वहीं पर पंचमुष्टि लोचकर लिया और साधु बनकर ध्यानस्थ हो गये। 'म भरतकी आंखें म्युली और उन्होंने भाई के चरण कर विनम्र शन्दों मे कहामाई । क्षमा करो, मेरी तुचताको भूल जाओ और राज्यमे चलो। लेकिन उन्हें राज्यमे अब क्या चलना था, उन्होंने तो त्याग कर दिया मो कर ही दिया। धन्य हे महायली वाहपलि के आर्दशत्यागो। RE
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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