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________________ ७७ प्रसङ्ग उन्नीसवां गया और प्रभुने वहीं उन वाकुलोंसे पारणा कर लिया। देवोंने अहोदानम्-अहोदानम्की हर्प ध्वनि की । साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राऍ वरसाई तथा सतीको दिव्य वस्त्राभूषणों और केशोंसे . अलंकृत करके रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाया। पता पाते ही दौड़कर मूलासेठानी आई और ज्योंही स्वर्ण मुद्राओंके हाथ लगाने लगी, देववाणीने कहा- यह सारा धन महासतीके दीक्षा महोत्सव में लगेगा । खवरदार । किसीने ले लिया तो ! इवर से लोहारको लेकर सेठ आया, पर वहां तो सारा खेल ही बदल चुका था । चन्दनाने माता - पिताको नमस्कार करके सिंहासन पर दोनों तरफ बैठाया । समाचार सुनकर राजा शतानीक और रानी मृगावती, जो इसके मौसा-मौसी थे, आए एवं अपराधकी क्षमा मांग कर सतीको राजमहलोंमे ले गये । फिर शीघ्रातिशीघ्र महाराजा दधिवाहनको, जो कहीं भाग गये थे, पता लगाकर लाए और क्षमायाचना करके चम्पाका राज्य उनको वापस दे दिया । दीक्षा साढ़े बारह साल घोर तपस्या करके प्रभु सर्वज्ञ बने गौतमादि चवालीस सौ पुरुपोंने दीक्षा ली । इधर चन्दनबाला भी भगवान्‌के चरणों मे पहुँची और अनेक सखियोंके साथ दीक्षित वनी | भगवान्ने विशेष योग्य समझकर उसे साध्वीसघकी मुख्यता दी। बहुत वर्षों तक संयम पालकर अन्तमें आठों कर्मोंका नाश करके वह सिद्धगतिको प्राप्त हुई एव सदाके लिए
SR No.010340
Book TitleJain Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanrajmuni
PublisherChunnilal Bhomraj Bothra
Publication Year1962
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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